आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कौन क्या सोचता और क्या कहता या करता है? इस उलझन को सिर ओढ़ने की अपेक्षा उचित यही है कि हम तथ्यों को समझें और सुनिश्चित राजमार्ग पर चलें। उचित मूल्य चुकायें और बहुमूल्य सफलतायें पायें। इन हेय प्रचलित मान्यताओं का आश्रय लेने और महत्व देने से कुछ बनेगा नहीं। हमें तथ्यान्वेषी होना चाहिए और यथार्थ को अपनाने में अपनी स्वतन्त्र चेतना का अवलम्बन करना चाहिए। लोग क्या कहते और क्या करते हैंं, इस जंजाल में उलझने का अर्थ अन्धी भेड़ों के पीछे चल पड़ना और अन्ततः अपने को भी उसी गर्त में गिरा कर वैसी ही दुर्गति करा लेना होगा। ऐसे प्रसंगों में स्वतंत्र निर्णय लेना और अपना पथ आप चुनना चाहिए। ऐसा साहस उभारने में कवीन्द्र रवीन्द्र का यह उद्बोधन अपनाये जाने योग्य है जिसमें उन्होंने भाव भरे स्वर में गाया था-"एकला चलो रे।'
अध्यात्म तत्वज्ञान का प्रथम निर्धारण है- आत्मशोधन, आत्म-परिष्कार अर्थात संचित मल, आवरण, विक्षेपों का, कषाय-कल्मषों का, संचित कुसंस्कारों का निराकरण, उन्मूलन।.इसे रंगाई से पूर्व की धुलाई, बुवाई से पूर्व की जुताई कह सकते हैं। हम समस्याओं, चिंताओं, विपत्तियों के घटाटोप, दृष्टिकोण की विकृति, आदतों की विपन्नता तथा गतिविधियों में घुसी हुई अवांछनीयता के कारण जीवन-आकाश पर छाते, उपल वृष्टि से वर्तमान को संकटग्रस्त तथा भविष्य को अन्धकारपूर्ण बनाते हैंं। इस विपत्ति का निराकरण आत्म-शोधन के बिना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता है। नाली में जमी सड़ी कीचड़ न हटे तो उस उद्गम से जन्मते कृमि-कीटकों को हटाते रहने पर भी पिण्ड छुटने वाला नहीं है। तप साधना का उद्देश्य संचित कुसंस्कारों के विरुद्ध अनुनय-विनय, सहन-सिखावन को निरर्थक समझते हुए तेजस्वी विद्रोह खड़ा कर देना है।
अध्यात्म क्षेत्र की सम्पदायें भौतिक क्षेत्र से असंख्य गुनी बड़ी है। शरीर में प्राण का महत्व अत्यधिक है और सम्पदाओं की तुलना में विभूतियों का महत्व अत्यधिक है। बड़प्पन अपनी जगह और मानवता अपनी जगह। वैभव और वर्चस की कोई तुलना नहीं। अभ्यास न रहने, उदाहरण न दीखने, अनुभवजन्य प्रेरणा न मिलने से अध्यात्म की गरिमा एक प्रकार से अविज्ञात ही नहीं, लप्त प्रायः भी हो चली है। पूजा और मनोकामना का तालमेल बिठाने वाली विडम्बना ने हर किसी को सस्ती लूटमार के प्रेम-जंजाल में फाँस दिया है। ऐसी दशा में अध्यात्म-विभूतियों को विज्ञान की उपलब्धियों की तुलना में विशिष्ट और वरिष्ठ सिद्ध कर सकना कैसे बन पड़े? यदि यह समझा और समझाया जा सके कि बलिष्ठता, सुन्दरता, कुशलता, शिक्षा, प्रतिभा, पदवी की तुलना में ओजस, तेजस, वर्चस से सम्पन्न व्यक्तित्व की क्षमता अत्यधिक है, तो लोग अपनी समूची जीवन सम्पदा पेट प्रजनन के कुचक्र में ही समाप्त न करें, वरन् आत्मा को बलिष्ठता प्रदान करने और अध्यात्म जगत के साथ जुड़े हुए देवत्व का सम्पादन करने की दिशा घारा भी अपनाने लगें।
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