आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
237 पाठक हैं |
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
उदाहरण न मिलने पर सन्देह और अविश्वास रहना स्वाभाविक है। इसकी व्यापकता मिटाने का एक ही उपाय है कि भूतकाल के ऋषि-मनीषियों की, भक्तजनों की दुहाई देते रहने की अपेक्षा ऐसे प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करें जिनके आधार पर आत्मक्षेत्र की गरिमा और उपलब्धियों का प्रत्यक्ष प्रतिफल देखने को मिल सके। यह तभी सम्भव है जब अध्यात्म क्षेत्र का स्वरूप, विधान एवं अनुशासन सही रूप में समझने और अपनाने का सरंजाम जुटे, आधार बने। इसके लिए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना होगा और समझना होगा। अध्यात्म की प्रेरणायें-इस क्षेत्र के अनुयायियों को आत्मचिंतन, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास के लिए बाध्य करती है। आत्म सत्ता का परिष्कृत स्वरूप ही इस योग्य बनता है कि सूक्ष्म लोक की अधिष्ठात्री देव चेतना के साथ आदान-प्रदान सम्भव हो सके। देव-अनुग्रह की बात इससे कम में बनती ही नहीं। पूजा उपचारों के अनेकानेक विधि-विधान उच्चस्तरीय सत्ता को लुभाने-फुसलाने के लिए विनिर्मित नहीं किए गये हैं वरन् उनका निर्धारण इसलिए हुआ है कि साधक को अपने अन्तराल में भाव-श्रद्धा, मनःसंस्थान में दूरदर्शी विवेकवान प्रज्ञा तथा प्रखर पुरुषार्थ से भरी-पूरी निष्ठा का उत्पादन-अभिवर्धन सम्भव हो सके।
वेदान्त के 'अहमात्मा ब्रह्म', 'प्रज्ञानं ब्रह्म', 'तत्वमसि', 'शिवोऽहम', 'सच्चिदानन्दोऽहम' आदि सत्रों में आत्मा के परिष्कत स्वरूप को ही परमात्मा माना है। आत्मा का परमात्मा में विलय-परिवर्तन ही ईश्वर-प्राप्ति, ब्रह्म निर्वाण, जीवन मुक्ति आदि नामों से प्रतिपादित किया गया है। समूची ब्रह्म-विद्या का सार संक्षेप इतना ही है कि जीवन को, व्यक्तित्व को उत्कृष्ट आदर्शवादिता से ओत-प्रोत बनाने वाले चिंतन एवं आचरण का आश्रय लिया जाय। इसके लिए कुछ व्यायाम, उपचार, प्रयोगों की सहायता ली जाती है, उन्हीं को तप, साधना एवं योगाभ्यास करते हैंं। यह समझने में भारी भूल हुई है कि यह बरगलाने वाले प्रयोग है। अपनी तराजू से ही परमात्मा को तोलना गलती है। प्रशंसा, रिश्वत, चापलूसी जैसे प्रयोग घटिया स्तर वालों को ही प्रभावित करते हैं। व्यक्तिगत सांठ-गांठ के डोरे उन्हीं पर डाले जा सकते हैं। ब्रह्म सत्ता का स्तर इससे कहीं अधिक ऊँचा है। वहाँ पक्षपात करने-कराने की चतुरता किसी भी प्रकार पहुँचती नहीं।
पात्रता और प्रामाणिकता के अनुरूप बड़े अनुदान-वरदान देने, बड़े उत्तरदायित्व सौंपने की नीति की ही वहाँ मान्यता है, न्यायाधीश यही करते हैं। चुनाव और नियुक्ति करने वाले अधिकारियों तक में जब प्रतियोगिता जीतने वालों को विजयी घोषित करने की नीति अपनाई जाती है तो देवसत्ता के उत्कृष्ट स्तर को देखते हुए किसी को यह आशा नहीं करनी चाहिए कि यहाँ चतुरता की दाल गलती है और खिलवाड़ जैसे पूजा-उपचार के सहारे महत्वपूर्ण अनुदान वरदान झटकने में सफलता मिल जायेगी।
|