आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
भ्रान्तियों का निराकरण हो सके, तो यथार्थवादी रीति-नीति अपनाने का अवसर मिले। सही राह पर चला जाय तो अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव हो। ब्रह्मविद्या का सार संक्षेप इतना ही है कि साधक अपनी संचित कुसंस्कारिता से जूझे और उनके स्थान पर भावना, विचारणा एवं कार्यपद्धति में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए भागीरथी संकल्प अपनाये और पवनपुत्र जैसा समुद्र लाँघने का पराक्रम कर दिखाये।
देवता के परिकार में ही सिद्ध पुरुष भी आते हैंं। सिद्ध पुरुषों के अनग्रह, आशीर्वाद, वरदान से भी ऐसे ही लाभों की आशा-अपेक्षा की जाती है जैसी कि देवताओं से। यहाँ अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक विचारणीय प्रश्न एक ही है कि ऋषि-कल्प लोग ऐसे वरदान देने में समर्थ हैं तो वह शक्ति उन्हें कहाँ से मिली? किस प्रकार उपलब्ध होती है? उत्तर एक ही है-आत्म परिष्कार की तप व साधना से। इस प्रकार देव-अनुग्रह कोई अनायास उपलब्ध होने वाला भाग्योदय नहीं रह जाता वरन् प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की कीमत पर खरीदा हुआ वैभव ही सिद्ध होता है। वे कुछ पाने के अधिकारी तभी बने जब तद्नुरूप पात्रता सिद्ध करने में खरे सिद्ध हुए। विचारणीय यह है कि पात्रता के सिद्धांत पर अटूट विश्वास रखने वाले, स्वयं को उस योग्य बनाने के लिए गलाने-तपाने वाले क्या इतने मूर्ख हो सकते हैंं जो अपनी ऐसी कठिन कमाई को उन चतुर लोगों पर बिखेरते फिरें जिनमें न तो कोई पात्रता है और न मनोकामनाओं में कोई आदर्शवादिता। कष्ट पीड़ितों की सहायता एक बात है, उसे सहृदयतापरक मानवोचित गुण कहा जा सकता है और इस प्रकार के सहयोग को परोपकार कहा जा सकता है। उसका औचित्य भी है। किन्तु जिसके सिर पर रावण जैसी वितृष्णा पूरी करने का भूत सवार है और जो विलास, वैभव एवं अहंकार की पूर्ति के लिए ऋषियों, सिद्ध पुरुषों का तप वरदान के रूप में माँगते हैंं, उनकी माँग को क्यों कर न्यायोचित माना जायेगा और क्यों उसकी पूर्ति के लिए कोई विवेकवान् अध्यात्मवादी सत्ता सहमत होगी। जो अन्यथा सोचते हैंं वे भूल करते हैं और स्वार्थान्य होकर औचित्य की परम्परा को ताक पर रख देते हैंं। अपनी आत्म-सत्ता को देव-अनुग्रह के लिए उपयुक्त सिद्ध न कर सकने वाले लोग प्रायः निराश रहते हैं और अध्यात्म बदनाम होता है। देवता हों या सिद्ध पुरुष, वे प्रामाणिक व्यक्तियों को देते मात्र एक ही शर्त पर है कि वे उसका उपयोग विलास में नहीं वरन लोकमंगल के उच्चस्तरीय प्रयोजन तक ही सीमित रखें।
इस पुस्तक में अध्यात्म-विज्ञान की विधि-व्यवस्था ब्रह्मविद्या को सार-संक्षेप में समझाने का प्रयत्न किया गया है ताकि तथ्यों को समझ लेने के उपरांत इस क्षेत्र का महत्व समझने वाले, प्रवेश करने के इच्छुक और कुछ कहने योग्य उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाले साहसी प्रगति पथ पर चल सकें और वह प्राप्त कर सकें जो यथार्थतावादियों को उपलब्ध होता रहा है, होता रहेगा।
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