आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आत्मशोधन को तप कहते हैंं और आत्म-क्षेत्र में उच्चस्तरीय विशिष्टताओं के समावेश को योग साधना। इन्हीं दो कदमों को क्रमिक गति से बढ़ाते हुए जीवन लक्ष्य तक पहुँचाने वाले राजमार्ग पर यात्रा-प्रवास निर्बाध रूप से सम्पन्न होता है। यही है कल्प साधना का तत्वज्ञान और विधि-विधान। कायाकल्प का प्रचलित अर्थ है-वृद्धावस्था को नवयौवन में बदल देना। यह अलंकारिक मान्यता है। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन के चक्र में उभार और अवसान दोनों का समान महत्व है। दीर्घायुष्य सम्भव है, पर प्रवाह को उलट देना कठिन। वृद्धावस्था के उपरान्त यौवन, यौवन के बाद बचपन, बचपन के बाद भ्रूण स्थिति को प्राप्त कर सकना कठिन है। नियति को ऐसा परिवर्तन स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं किया जा सकता। मनुष्य की इच्छा भले ही कुछ भी क्यों न रहे। इस आधार पर वृद्धावस्था को कष्टसाध्य न होने देने और निरोग दीर्घायुष्य का आनन्द लेते रहने की सम्भावना को ही 'कल्प मान लेना चाहिए और दूसरों की तुलना में अपने को अधिक सौभाग्यशाली मानकर सन्तोष करना चाहिए।
'कल्प' का वास्तविक तात्पर्य है-अन्तराल का, व्यक्तित्व का, चिंतन का, चरित्र का, दृष्टिकोण का, स्तर का उपयुक्त परिवर्तन-परिष्कार। यह नितान्त सम्भव है। ध्रुव, प्रहलाद, वाल्मीकि, अंगुलिमाल, बिल्वमंगल, अजामिल आदि अगणित व्यक्ति अवांछनीय केंचुल को बदलकर देखते-दिखाते पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बने है। सामान्य परिस्थितियों में जन्में और पले व्यक्ति मूर्धन्य महामानवों में गिने गये हैं। यही वास्तव में कायाकल्प है। इस स्तर की उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए क्या सोचना और क्या करना चाहिए? इसी का इतिहास समर्पित और अनुभवों से भली-भाँति प्रतिपादित इस पुस्तक में है। जो समझने, अपनाने का प्रयत्न करेंगे, वे लाभान्वित होकर रहेंगे, ऐसा विश्वास है।
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