आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कल्प साधना का उद्देश्य और स्वरूप
यह एक सुविदित तथ्य है कि संचित पापकर्मों का प्रतिफल रोग, शोक, विक्षोभ, हानि एवं विपत्ति आदि के रूप में उपस्थित होता है। विपत्तियों को भुगतने का मूल आधार मनुष्य का प्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण ही होता है। पापकर्म के बीज सर्वप्रथम दुष्प्रवृत्ति बनकर अंकुर की तरह उगते हैंं। उसके बाद वे पेड़-पौधे बनकर फलने-फूलने योग्य जब तक नहीं होते तब तक उनका स्वरूप पतन-पराभव के रूप में दृष्टिगोचर होने वाले दुराचरण जैसा होता है। कालान्तर में जब वे परिपुष्ट, परिपक्व हो जाते हैंं तो आधि-व्याधि, विपत्ति, हानि, भर्त्सना के रूप में कष्ट देने लगते हैंं। दुष्कर्मों के अवश्यंभावी प्रतिफल से बचने का दैवी प्रकोप एवं सामाजिक प्रताड़ना के अतिरिक्त दुसरा मार्ग प्रायश्चित का है। इसका आश्रय लेकर मनुष्य आत्मशोधन और आत्म परिष्कार का दुहरा प्रयोजन एक साथ पूरा कर सकता है।
प्रगति पथ पर चलने के लिए व्यक्ति को जो तप साधना करनी पड़ती है उसके स्वरूप दो ही हैं। पहला है-आंतरिक अवरोधों से पीछा छुड़ाया जाय और दूसरा है-आत्मबल पर आश्रित अनुकूलताओं को अर्जित किया जाय। यही है आत्मिक पुरुषार्थ का एक मात्र और वास्तविक स्वरूप। यात्री को एक पैर उठाना और दूसरा बढ़ाना पड़ता है। उठाने का तात्पर्य है-कुसंस्कारों को छोड़ा जाय, उसके लिए कठोर तप किया जाय। बढ़ाने का अर्थ है-सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव एवं आचरण में घुला दिया जाय। कच्ची धातुयें अपनी सामान्य स्थिति में प्रयुक्त नहीं होती। उन्हें बहुमूल्य उपकरण के रूप में परिवर्तित करने के लिए प्रचण्ड ताप की भट्टी द्वारा गलाई-ढलाई करनी पड़ती है। गलाई को 'तप' और ढलाई को 'योग' कहते हैं। कल्प-साधना में तप और योग दोनों का समावेश है। इसकी समूची प्रक्रिया में पग-पग पर परिशोधन और परिष्कार के उभयपक्षीय तत्व पूरी तरह गुंथे हुए है।
उपवास एवं सुसंस्कारी अन्न से काय शोधन होता है और मनःक्षेत्र में प्रज्ञा का आलोक बढ़ता है। शरीर कल्प के यही दो आधार है।
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