आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
यह कल्प साधना घर के व्यस्त-अभ्यस्त वातावरण में नहीं हो सकती। उपवासपूर्वक अनुष्ठान तो आये दिन होते रहते हैंं। अन्तः के कायाकल्प की साधना उससे आगे की चीज है, इसके लिए तद्नुरूप तीर्थ जैसा पवित्र वातावरण, उपयुक्त साधन एवं ऋषि कल्प मार्गदर्शन चाहिए। यह आवश्यकता शांतिकुञ्ज गायत्री नगर में अच्छी तरह सम्पन्न हो सकती है वैसी सुविधा कहीं अन्यत्र मिल सकना कठिन है। पूर्ण कल्प साधना एक महीने की होती है और लघु 'शिशु साधना दस दिन की। दोनों में समय का ही अन्तर है। विधान, अनुशासन दोनों में एक जैसे है। सबसे महत्व की बात यह है कि शरीरगत अनुबन्धों की निर्धारित दिनचर्या अपनाये रहने के अतिरिक्त मानसिक स्थिति भी बनानी पड़ती है, मानो किसी अन्य लोक में उन दिनों रहा जा रहा है। इन दिनों सांसारिक चिन्तन एक प्रकार से विस्मृत ही कर देना चाहिए और मात्र अध्यात्म लोक की आवश्यकताओं तथा अन्तःक्षेत्र की समस्याओं का हल करने में ही चित्त को पूरी तरह केन्द्रित रखना चाहिए। भौतिक जीवन की समस्याएँ इतनी विकट होती हैं कि उन्हें सुलझाने वाले साधन जुटाने में प्रायः समूची जीवन अवधि खप जाती है। फिर आत्मिक जीवन तो और भी व्यापक एवं महत्वपूर्ण है। उसकी गुत्थियाँ सुलझाने और प्रगति के सरंजाम जुटाने हेतु नये सिरे से नये दृष्टिकोण तथा नया साहस जुटाना होता है। इतने बड़े काम के लिए निर्धारित साधना का स्वरूप यही है कि उसमें से भौतिक चिन्तन एवं प्रयोजनों में भी प्रयास के लिए तनिक भी कोशिश नहीं की जाय तथा मनोयोग को निर्धारित प्रयोजनों में जुटाये रखा जाय। मन को अन्य किसी कार्य में अस्त-व्यस्त नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार चान्द्रायण साधना को 'व्रत', 'तप' एवं 'कल्प' के नाम से - भी जाना जाता है। 'व्रत' अर्थात संयम, अनुशासन, निर्धारण एवं परिपालन। 'तप' अर्थात् संचित कुसंस्कारों से संघर्ष और शालीनता के अवधारण का अभ्यास-पुरुषार्थ। 'कल्प' अर्थात् पिछली हेय स्थिति को उलट कर उस स्थान पर उत्कृष्टता का प्रतिष्ठापन। यह तीनों ही प्रयास परस्पर मिलते हैं तो ज्ञान और कर्म की गंगा-यमुना मिलने से एक नई धारा भक्ति भावना की, दिव्य जीवन की सरस्वती के रूप में उद्भूत होती है। इस समन्वय से त्रिवेणी संगम बनता है। उसका अवगाहन करने वाले इस धरती पर स्वर्ग का आनन्द लेते हैंं, जीवनमुक्त बनते हैं और मनुष्य रूप में देवता कहलाते हैं। इसी परम लक्ष्य की पूर्ति करना आन्तरिक काया कल्प साधना का आधारभूत उद्देश्य है।
संक्षेप में कल्प साधना के तीन पक्ष है-संयम-साधना, प्रज्ञा-उपासना, भविष्य निर्धारण की आराधना। संयम साधना में उपवास प्रमुख है। इस अवधि में आहार सामान्य की तुलना में आधा ही लिया जाता है। जो खाया जाए वह पूर्ण सात्विक एवं सुसंस्कारी हो, इसका ध्यान रखा जाता है। संयम को ही तप कहते हैं।
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