आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
सामान्य जीवन में यह तप चार प्रकार का अपनाया जाता है।
(१) इन्द्रिय संयम के लिए ब्रह्मचर्य, मौन, अस्वाद आदि की तितिक्षा,
(२) अर्थ संयम के लिए मितव्ययता। परिश्रमशीलता अपनाकर सादा जीवन उच्च विचार का अभ्यास, औसत भारतीय स्तर के निर्वाह का अभ्यास,
(३) समय संयम-एक घड़ी भी आलस्य प्रमाद में बर्बाद न होने देना। दिनचर्या बनाकर उसके परिपालन में तत्परता बरतना,
(४) विचार चिन्तन को अस्त-व्यस्त उड़ानें भरने से रोकना, सपि हुए काम में ही मनोयोग नियोजित रखना।
चान्द्रायण में यह चारो ही संयम साधनाएँ तपश्चर्या के रूप में निर्धारित करनी होती है। तपस्वी सच्चे अर्थों में सामर्थ्यवान बनता है। उसकी ऊर्जा से प्रखरता, परिपक्वता बढ़ती है। तपस्वी ही शरीरगत ओजस, तेजस एवं अन्तःकरण के वर्चस से सुसम्पन्न बनते हैं। इसी आत्मबल के सहारे ऋद्धि-सिद्धियों का द्वार खुलता है। प्रज्ञा उपवास में गायत्री पुरश्चरण मुख्य है। ढाई घण्टा नित्य का समय इसके लिए नियत है। इसी बीच निर्धारित जप संख्या पूरी की जाए। साथ ही प्रभात कालीन सूर्य किरणों के तीनों शरीर में प्रवेश करने का ध्यान किया जाए। अनुभव किया जाए कि गायत्री के प्राण सविता देवता का दिव्य आलोक जीवन सत्ता के कण-कण में प्रवेश करके तीन अनुदान प्रदान करता है-स्थूल शरीर में सद्कर्म, सूक्ष्म शरीर में सद्ज्ञान, कारण शरीर में सद्भाव। इन्हीं तीनों को क्रमशः निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा भी कहते हैंं। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के अन्तर्गत इन्हीं दिव्य अनुदानों का विवेचन किया जाता है और तृप्ति, तुष्टि, शांति की त्रिविध विभूतियों के सहारे देवोपम जीवन जी सकने का लाभ समझाया जाता है। जिनको यह दिव्य सम्पदा जितनी मात्रा में उपलब्ध होती है, वह उसी अनुपात में आत्म सन्तोष, जन सहयोग एवं दैवी अनुग्रह का प्रतिफल हाथों-हाथ प्राप्त करता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा ही गायत्री है। प्रज्ञा-अर्थात् दूरदर्शी विवेकशीलता, यही है मनुष्य का आराध्य। इस दिशा में होने वाली प्रगति से इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति के रसास्वादन का लाभ मिलता है।
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