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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
नमक के अतिरिक्त एक अन्य पक्ष है आहार की विकृति। लोगों की मान्यता कुछ इस प्रकार की है कि जो पदार्थ स्वादिष्ट लगे, जिसका जायका बढ़िया हो, जिसमें घी, तेल, मिर्च-मसाले प्रचुर मात्रा में हों, जिसे देखते ही मुँह में पानी भर आये, वही भोजन ग्रहण करने योग्य है। ऐसे चटोरे लोग खाद्य सामग्री के सारे पोषक तत्वों को नष्ट कर मात्र कार्बन ही खाते हैंं। भोजन अग्निहोत्र प्रक्रिया के समान है जिसमें प्रदोप्त जठराग्नि में आहुति दी जाती है। जिस प्रकार यज्ञाग्नि में उपयुक्त-अनुपयुक्त, अशुद्ध और निषिद्ध किसी भी प्रकार की आहुति देने से सुफल की आशा नहीं की जा सकती वरन् हानि एवं दैवी अभिशाप की ही सम्भावना अधिक रहती है उसी प्रकार क्षुधा रूपी ज्वाला में अखाद्य, अशुद्ध, अग्राह्य हवि निश्चित ही रोगों को दिया गया आमंत्रण है जिसे जीवन देवता का अभिशाप भी मान सकते हैं।
इसी प्रकार भोजन का अर्थ किसी तरह पेट को भरना नहीं है। जिस वक्त जो कुछ मिल जाय उल्टा-सीधा, अच्छा-बुरा पेट में डालकर इस पापी की आग बुझाना एक प्रकार से गलत दृष्टिकोण है। भोजन की उपेक्षा करने वाले भी उतने ही निन्दा के पात्र हैं जितने स्वाद के नाम पर विकृत आहार लेने वाले।
यदि पकाने में अग्नि संस्कार कम से कम लिया जाय और मात्र हल्की आग पर खाद्य वस्तुओं को उबालने तक की ही चूल्हे की भूमिका मान ली जाय तो अन्न को, वनस्पतियों को बिगड़ने से काफी कुछ बचाया जा सकता है। तलना, भूनना, एक प्रकार से खाद्य की जीवनी शक्ति को नष्ट कर देना है। उबालने का श्रेष्ठतम तरीका भाप के सहारे पकाने का है। इसमें खाद्य पदार्थों की मूल सामर्थ्य नष्ट नहीं होती। प्रेसर कुकर-सादे कुकर की व्यवस्था से भोजन पक सके तो इससे श्रेष्ठ कोई विधि नहीं। यह पूर्णतः वैज्ञानिक है तथा महत्वपूर्ण घटकों से बिना छेड़छाड़ किये उन्हें परिपाक के योग्य बनाने वाली प्रक्रिया है। शांतिकुञ्ज की कल्प चिकित्सा में इस प्रक्रिया से ही आहार पकाया जाता है। ब्याइलर व्यवस्था से पकाया अन्न पूर्णतः सात्विक, पौष्टिक, सुस्वादु तथा हाइजिनिक होता है, यह सभी जानते हैंं व अनुभव भी करते हैंं।
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