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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
विभिन्न प्रकार के कल्प प्रयोग
ब्रह्मवर्चस की कल्प साधना में क्रमिक रूप से शास्त्रोक्त सभी प्रकार के कल्पों को किये जाने का विधान है। प्रारम्भिक रूप में उसका एक छोटा स्वरूप भाप द्वारा पकाये गये एक ही अन्न के आहार का पूरी अवधि में सेवन तथा एक ही औषधि के निर्धारित मात्रा में नित्य प्रयोग के रूप मे बनाया गया है। साधना-अनुष्ठान, स्वाध्याय, सत्संग, नित्य अग्निहोत्र कुटीवास, औषधि के क्वाथ (प्रज्ञापेय) सेवन आदि से साधकों में इस अल्पावधि में ही महत्वपूर्ण परिवर्तन होते पाये जाते हैंं। परम्परागत चिकित्सा पद्धति में विभिन्न प्रकार के प्रयोगों की चर्चा की जाती है जिनमें प्रमुख इस प्रकार है-(१) दुग्धकल्प, (२) मठाकल्प, (३) अन्न कल्प-गेहूँ, जौ, चावल, मक्का, बाजरा, हविष्यान्न (गेहूँ+जो+तिल), अमृताशन (चावल+दाल), मूंग एवं दलिया। इनमें से किसी एक को अकेले अथवा सम्मिश्रण के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। (४) फल कल्प-आम,खरबूजा, पपीता, छुआरा, जामुन, सन्तरा, शहतूत, फालसा, सेव, नाशपाती, अमरूद तथा शरीफा। (५) शाक कल्प-मेंथी, बथुआ, पालक, लौकी, टमाटर, तोरई, गाजर, परवल, ककड़ी, चौलाई। (६) औषधि कल्प-गिलोय, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, अश्वगंधा, शतावर, आंवला, हरीतकी, निर्गुण्डी, तुलसी, बिल्व, त्रिफला, विधारा, पलास, मुसली, शाल्मली, भृंगराज, अमलतास तथा चोपचीनी।
कल्प चिकित्सा में बहुधा रसपर्पटी, स्वर्ण पर्पटी आदि औषधियों की चर्चा होती है। पारे और गन्धक के सम्मिश्रण से ये रसायन बनते हैंं जिनका कार्य है पाचक यंत्रों को सबल करके परिपाक तन्त्र (एसिमिलेशन) को सुव्यवस्थित बनाना। रसायन होने के नाते इनका प्रयोग भले ही आयुर्वेद सिद्धान्तार्गत प्रतिपादित कल्प चिकित्सा में होता हो, सौम्य कल्प साधना में इनका प्रावधान नहीं बताया गया है। काष्ठ औषधियों की गुणवत्ता अपने स्थान पर है। एक मात्र उन्हीं के प्रयोग से भी शरीर तंत्र का शोधन सम्भव है। पर्पटी का प्रयोग सभी को अनुकूल भी नहीं पड़ता। ऐसी अवस्था में पाचन तंत्र को थोड़ा विश्राम देकर ही खाद्य के प्रयोग से पोषण करने का सिद्धांत ही ठीक बैठता है। साधक की प्रकृति के अनुसार निर्धारित आहार, औषधियाँ इसी कारण पथ्य का समुचित अनुपात में परिपाक करती व जीवनी शक्ति बढ़ाती देखी जाती है।
यहाँ संक्षेप में उपरोक्त छह प्रकार के कल्पों में से कुछ का विवरण दिया जा रहा है। प्रत्येक में मूल सिद्धांत एक ही है-एक आहार की-एक माह की अस्वाद साधना, कृत्रिमता से दूर प्राकृतिक जीवन क्रम की ओर चलने का अभ्यास। इससे वे साधक तो लाभान्वित होंगे ही जो स्वस्थ है पर स्वयं अन्तः सामर्थ्य को और बढ़ना चाहते हैं, वे रोगी साधक भी निरोग हो सकेंगे जिन्हें सूक्ष्म रूप से अवस्थित उन विकारों की जानकारी नहीं है जो कमजोर मनःस्थिति का, अशक्त बनाये हुए है।
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