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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


(१) दुग्ध कल्प

दुग्ध को एक संतुलित खाद्य माना गया है। इसमें यथेष्ठ परिणाम में मात्र प्रोटीन ही नहीं शर्करा, वसा, विभिन्न विटामिन तथा धातु बलवत्ता भी विद्यमान है। इन प्रोटीन (अमीनो एसिड्स) की विशेषता यह रहती है कि वे शरीर में पहुँचते ही पच जाते हैंं, प्रायः सभी अंश देह में अवशोषित हो नव निर्माण में नियोजित हो जाते हैंं। उनकी शर्करा (लैक्टोज) आँत में जाकर अन्य शर्कराओं के पाचन में भी मदद करती है। अन्य शर्करायें आँत में अधिक समय रहकर सड़ने लगती है जबकि लैक्टोज के साथ यह बात नहीं है। गाय के दूध में प्रति १०० ग्राम (प्रतिशत) ३३ ग्राम प्रोटीन्स, ३.६ ग्राम प्रतिशत वसा, ४.८ ग्राम प्रतिशत शर्करा, ९७.६ ग्राम प्रतिशत जल तथा ६५ कैलोरी प्रति 900 ग्राम होते हैंं। इसमें विटामिन बी-२.२०० मिलीग्राम प्रतिशत, कैल्सियम ०.१२ मिली ग्राम तथा फास्फोरस ०.०९ मिलीग्राम प्रतिशत होता है। सतोगुणी प्रवृत्ति के कारण इसे ही श्रेष्ठ माना गया है। वसा, शर्करा एवं कैलोरी का अनुपात भले ही भैंस या बकरी के दूध में अधिक हो, कल्प साधना के प्रयोजनों को दृष्टिगत रखते हुए गौ दुग्ध का सेवन ही हितकारी है।

अब शोध निष्कर्ष उसी तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि अधिकांश व्याधियाँ आवश्यक तत्वों की शरीर में कमी से उत्पन्न होती हैं। कुपोषण असंतुलित आहार ग्रहण करने से होता है। विद्वानों का कथन है कि हृदय से सम्बन्ध रखने वाले कुछ स्थानीय विकारों, जन्मजात व्याधियों को छोड़कर ऐसी कोई शारीरिक व्याधि नहीं है जो दूध के यथाविधि सेवन करने से न मिट जाय। शरीर की कमियों की पूर्ति हेतु दूध से श्रेष्ठ कोई पदार्थ नहीं। अधिकांश व्यक्तियों की सामान्यतया पाचन शक्ति ठीक नहीं होती, इसलिए उन्हें ऐसे भोजन की आवश्यकता होती है जो शरीर का पोषण तो भली प्रकार कर सके पर जिसके पचाने में अधिक शक्ति खर्च न हो। ऐसा सबसे अच्छा और प्राकृतिक भोजन दूध ही है। इसमें हमारी आवश्यकतानुसार सभी पोषण तत्व मौजूद रहते हैंं। छोटे बालक बहुत समय तक दूध पर खूब स्वस्थ रहते हैंं और अनेक वृद्ध भी केवल दूध का सेवन करके वर्षों तक जीवित रहते देखे गये हैं। आधुनिक ग्रन्थों में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैंं जिनमें किसी कारणवश एक व्यक्ति को ५० वर्ष और दूसरे को १५ वर्ष केवल दूध पर रखा गया और वे स्वस्थ रहकर सब तरह के काम करते रहे। यही कारण है कि उन तमाम बीमारियों के लिए जिनको अग्रेजी में 'न्यूनता की बीमारी' (डिफीशिऐन्सी डिसीजेज) कहते हैंं, दूध का सेवन ही सबसे बड़ा इलाज कहा गया है।

दूध के द्वारा चिकित्सा करने का निश्चय करने के बाद अनजान व्यक्ति विशेष भूलें कर बैठते हैंं। पहली भूल तो यह है कि वह पाचन प्रणाली (मुँह से लेकर मलद्वार तक) की तैयारी किए बिना ही ठोस भोजन बन्द करके एकदम दुग्धाहार शुरू कर दें और दूध को पानी की तरह पीने लगें। दूसरी भल यह हो सकती है कि कोई मनुष्य एक-डेढ़ सेर दुध रोज पीवे और यह समझ ले कि मैं दुग्धाहार कर रहा हूँ। कुछ लोग ऐसे भी देखे गये हैं जो दो तीन बार ठोस भोजन खा लेते हैंं और बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा करके सेर दो सेर या अधिक दूध भी लेते हैंं। वे यह समझते हैं कि हम दुग्धाहार पर हैं अथवा दुग्ध चिकित्सा कर रहे हैं। ऐसे विचार अनजानपन के चिन्ह हैं और उनसे बचना चाहिए। जो लोग दूध को औषधि की तरह सेवन करना चाहते हैंं और जिनकी इच्छा है कि इस प्रकार की दुग्ध चिकित्सा से उनका कोई रोग दूर हो जायगा या गिरे हुए स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है तो उन्हें चिकित्सकों द्वारा बतलाया सब नियमों का पूर्ण रूप से पालन करते हुए इस चिकित्सा को करना चाहिए।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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