आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
साधना से सफलता के दो अनिवार्य अवलम्बन
साधना से कायाकल्प के विस्तार में जाने से पूर्व साधना से सिद्धि के सिद्धांत को भली-भाँति हृदयंगम करना होगा। शास्त्रकारों, आप्त पुरुषों, मनीषियों, तपस्वी-साधकों ने एक स्वर में इस तथ्य को माना है कि मानवी सत्ता में दैवी विभूतियों का अजम भण्डागार छिपा पडा है, उसे जगाने के लिए साधनापरक पुरुषार्थ किया जा सके तो अविज्ञात प्रसुप्त को प्रत्यक्ष होने का अवसर मिल सकता है। इससे अनभिज्ञ मानव अनपढ़-आदिम का सा जीवन जीता किसी तरह अपने दिन पूरे करता रहता है।
अप्रत्यक्ष के प्रकटीकरण के लक्ष्य को ध्यान में रखकर किये गये प्रयासों को 'साधना' कहते हैंं। इसके दो प्रयोजन है। एक अन्तराल की प्रसुप्त विभूतियों का जागरण, दूसरा अनन्त ब्रह्माण्ड मंह संव्याप्त ब्राह्मी चेतना का अनुग्रह-अवतरण। जागरण हुए बिना अनुग्रह मिल सकना सम्भव नहीं। सूखी चट्टान पर पानी कहाँ बरसता है? दोनों ही प्रयोजन देखने में भिन्न प्रतीत होते हैंं परन्तु है अविच्छिन्न, एक दूसरे के पुरक। बीज में वृक्ष बनने की समर्थता सन्निहित है, पर वह अनायास ही प्रकट नहीं होती, उसके लिए उपयुक्त भूमि में बीजों को बोना, उसके लिए खाद पानी का प्रबन्ध करना पड़ता है। इतना बन पड़ने पर ही अंकुर उत्पन्न होता है। यह आत्म-जागरण का प्रयास हुआ। बीज जमीन से खुराक खींचने लगता है, यह उसका अपना पुरुषार्थ है। आत्म साधना इसी को कहते हैंं कि बीज अंकुरित हो, जड़ पकड़े, जमीन से खुराक खींचे और पत्तों के माध्यम से हवा से साँस खींचने लगे।
ब्राह्मी-चेतना का अनुग्रह है बाहरी सहायता उपलब्ध करना। पौधा हवा से साँस खींचता है। यह हवा उसकी अपनी कमाई नहीं पहले से ही मौजूद है। पत्तों के साँस लेने में सक्षम होते ही वह अभीष्ट मात्रा में मिलने लगती है। सभी जानते हैंं कि पेड़ों की चुम्बकीय शक्ति बादलों को बरसने के लिए बाध्य करती है। हरे भरे, फूले-फले वृक्ष को देखकर, उसे जी भर कर निहारने, छाया, सुगन्ध, शोभा का, फल-फूलों का लाभ लेने के लिए कीट-पतंग, पशु-पक्षी, मनुष्य सभी उसके समीप दौड़ते हैंं।
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