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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
इन सभी वैज्ञानिक जानकारियों के विस्तार जानना साधक के लिए एवं साधारण पाठक के लिए जरूरी नहीं। मात्र यह ज्ञान होना चाहिए कि अध्यात्म अनुशासन की यह साधना न केवल विज्ञान सम्मत है अपितु प्रत्यक्ष परिणाम देने वाली है। साधना क्षेत्र में भी भौतिक क्षेत्र की भाँति क्रिया की प्रतिक्रिया हाथों हाथ दृष्टिगोचर होती है इस तथ्य को हर साधक अपनी आँखों के सामने प्रत्यक्ष घटते देखता है। आते समय की मनःस्थिति एवं विदा के समय की स्थिति में जमीन-आसमान जैसा अन्तर दीख पड़ता है। प्रारम्भ में जहाँ एक माह की अवधि एक वर्ष के बराबर लगती थी, वाष्पसिद्ध आहार कैसे मन को रुचेगा तथा रसीले सुस्वादु व्यंजनों की अभ्यस्त जिह्वा उसे एकरसता से कैसे ग्रहण करेगी, इस प्रश्नवाचक चिहन , का उत्तर धैर्यवान साधक चमत्कारी रूप में अपने शारीरिक, मानसिक आत्मिक स्वास्थ्य में आमूल-चूल परिवर्तन के रूप में पाते हैंं। यह बात अलग है कि मात्र कृत्य को ही महत्व देकर एक माह की लकीर पीटकर प्रयोग-परीक्षण का तमाशा देखने की किसी इच्छा रही हो। ऐसे व्यक्तियों में बहुधा परिवर्तन नहीं होते। जब तक मन की गाँठे न खुलें, शोधन, वमन, विरेचन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो तब तक अन्दर कुछ प्राणवान कहा जाने वाला आध्यात्मिक अनुदान प्रविष्ट कैसे हो? वह न हो तो परिवर्तन कहाँ से उत्पन्न हो? यह सब सूक्ष्म स्तर की परिणतियाँ हैं जिनकी स्थूल अभिव्यक्ति मात्र प्रयोग परीक्षणों के निष्कर्षों में दिखाई देती हैं।
हर साधक को जाते समय उनकी जाँच पड़ताल का निष्कर्ष पत्रक दिया जाता है। 'इनडोर सेनिटोरियम में भरती होते समय की स्थिति व जाते समय की स्थिति का उसमें स्पष्ट उल्लेख होता है। इन्हें देखकर हर कोई यह अन्दाज लगा सकता है कि पूर्व की तुलना में जाते समय निश्चित ही स्थिति बदली, शोधन प्रक्रिया द्वारा पुराना ढर्रा बदला एवं चिंतन से लेकर अन्तः की उमंगों तक, काय गतिविधियों से लेकर बहिरंगी व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन आया। यही आध्यात्मिक भाव कल्प है। यह पूर्णतः वैज्ञानिक तथ्यों, प्रमाणों पर आधारित है, इसे दर्शन का प्रयास ही ब्रह्मवर्चस् में किया जाता है। प्रत्यक्ष को सामने देखकर किसी को स्वीकारने में न नुच करना भी नहीं चाहिए। न केवल साधक समुदाय की तुष्टि के लिए वरन् इस बुद्धिवादी युग में वैज्ञानिक समुदाय की सहमति के लिए बिना इतनी बड़ी प्रतिष्ठापना सम्भव भी नहीं है।
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