आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
नरक लोक में यमदूतों द्वारा दिये जाने वाले त्रासों का वर्णन कथा-पुराणों में सुनने को मिलता रहता है। कषाय-कल्मषों से आच्छादित अन्तःकरण ही नरक है। अपने ही दुर्गण दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करते हैंं, अपनी ही दुर्बुद्धि अचिन्त्य चिंतन में निरत रहकर कुमार्ग पर धकेलती है। दुष्प्रवृत्तियाँ ही उलटकर विपत्तियों की तरह बरसती हैं। यमदूत और कुछ नहीं अपने ही कुसंस्कारों द्वारा उत्पन्न किए गये भूत-प्रेत हैं जो क्रिया की प्रतिक्रिया का परिचय देते हैंं और अनाचारी को तोड़-मरोड़कर रख देते हैंं। नरक और यमत्रास मनुष्य की आत्म सत्ता में ही सृष्टा ने सुनियोजित रीति से ग्रंथ दिये हैं।
साधना की प्रगति में सर्वप्रथम साधक को इसी मोर्चे पर जूझना पड़ता है। साधना को संग्राम कहा गया है। यही अर्जुन का महाभारत है। इसे लड़े बिना कोई चारा नहीं, कृष्ण का आग्रह इसी निमित्त था। जब वह तैयार हो गया तो वह रथ चलाने, घोड़े हाँकने, रास्ता बताने और विजय दिलाने के लिए वचनबद्ध हो गए। साधना यहीं से आरम्भ होती है। साधक को अन्तराल के धर्म क्षेत्र में और व्यवहार के कर्म क्षेत्र में उच्च उद्देश्यों के लिए अग्रगामी होना पड़ता है। गाण्डीव उठाने और 'करिष्ये वचन तव' का संकल्प करने के उपरान्त ही सामान्य-सा पाण्डुपुत्र भगवान का अनन्य सहचर महान अर्जुन बनता है। यही है साधना से सिद्धि की पृष्ठभूमि।
भीतरी प्रगति और बाहरी उपलब्धि के लिए साधना मार्ग पर अग्रसर होना होता है। यह मंजिल अपने ही पैरों चलकर पूरी करनी पड़ती है। मार्ग में सहायक सहयोगी भी मिलते हैंं और लक्ष्य तक पहुँचने पर अभीष्ट उपहार भी उपलब्ध होते हैंं किन्तु ऐसा नहीं होता कि अपने पैरों को कष्ट देने से बचा लिया जाय और किसी दूसरे के कन्धे पर बैठकर यह यात्रा पूरी कर ली जाय। दैवी शक्तियों के वरदान-अनुदान प्राप्त होने की परम्परा तो है, पर वह लाभ विजेताओं को मिलता है। छात्रवृत्ति या उपाधि उत्तीर्ण छात्रों को मिलती है। शिक्षा आरम्भ करने से पूर्व ही यह दोनों अनुदान हस्तगत हो सके हों-ऐसा देखा, सुना नहीं गया। साधना का साहस करने से पूर्व सिद्ध पुरुषों के अनुदान आशीर्वाद अथवा देवसत्ताओं के सिद्धि वरदान मिलने लगें, ऐसी अपेक्षा करना व्यर्थ है।
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