आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आत्मिक प्रगति पर चलने के लिए भी इसी प्रकार दो कदम उठाते हुए बढ़ना होता है जैसा कि आये दिन सभी चला करते हैंं। पैर दो हैं। चलने वाले इन्हीं को लेफ्ट-राइट करते हुए आगे बढ़ाते हैंं। अध्यात्म तक पहुँचने के लिए जो कदम बढ़ाने पड़ते हैंं-उनमें से एक का नाम है-परिशोधन, दूसरे का नाम-परिष्कार। परिशोधन अर्थात् संचित कषाय-कल्मषों का, कुसंस्कारों का, दुष्कर्मों के प्रारब्ध संचय का निराकरण। परिष्कार अर्थात् श्रेष्ठता का जागरण, अभिवर्धन, सुसंस्कारिता का जीवनचर्या में अधिकाधिक समावेश। यह दो उपक्रम ही वे दो कदम हैं जिन्हें बढ़ाते हुए आत्मिक क्षेत्र की सफलता सम्भव होती है।
यही राजमार्ग सबके लिए है। इसमें पगडण्डी वाला 'शार्टकट' ढूँढ़ना व्यर्थ है। चुटकी बजाते जो ऋद्धि-सिद्धियों की बात सोचते हैं, कुछ ओछे-तिरछे उपचारों के सहारे भौतिक सफलताओं की तुलना में असंख्य गुनी अधिक महत्वपूर्ण आत्मिक सफलता का सपना देखते हैं-वे यथार्थ से कोसों दूर हैं। मनमोदक खाने वाले, स्वप्नदर्शी व्यर्थ ही मृग-तृष्णाओं में भटकते रहते हैंं। बड़ी उपलब्धियों का बड़ा मूल्य चुकाना पड़ता है। हर साधक को सिद्धावस्था तक पहुँचने के लिए आत्म-शोधन और आत्म-परिष्कार के अवलम्बन अनिवार्य रूप से अपनाने होते हैंं।
परिशोधन को तपश्चर्या कहते हैं और परिष्कार को योग-साधना। तप की गर्मी से कुसंस्कार जलते हैंं और प्रसुप्त सुसंस्कार जगते-उभरते हैंं। योग से परब्रह्म के साथ एकात्म स्थापित करने का अवसर मिलता है। बल्ब तब प्रकाशवान होता है, जब तारों के माध्यम से वह बिजली के उत्पादन केन्द्र के साथ सम्बन्ध जोड़ता है। परमात्मा बिजली घर है और आत्मा बल्ब। तार मिलने पर ही करेण्ट चालू होता है, आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने से ही साधक को दिव्य चेतना का, विभूतियाँ बढ़ने का प्रमाण-परिचय मिलने लगता है। योग अर्थात् आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाली भावनात्मक प्रक्रिया। तप अर्थात संचित कुसंस्कारों, दुष्कर्मों का दहन-प्रायश्चित। तप अर्थात ऊर्जा का उद्भव जिसके सहारे सत्प्रयोजन का पराक्रम जगे और उत्कृष्टता अवधारण का साहस उभरे।
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