आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कपड़ा रंगने से पहले उसे भली प्रकार घोना पड़ता है। बीज बोने से पूर्व भूमि तैयार करनी होती है। कारतूस चलाने का समय आता है, जब अच्छी बन्दुक हाथ लग जाती है। पूजा से पूर्व स्नान करने, धुले वस्त्र पहनने, बुहारी लगाने की आवश्यकता होती है। भोजन करने से पूर्व हाथ धोते हैंं। इन्जेक्शन लगाने से पूर्व सुई को गरम पानी में उबालते हैंं। इन उदाहरणों में परिशोधन की प्राथमिकता है। यही बात आत्मिक प्रगति के सम्बन्ध में भी है। ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करने से पूर्व उस दिव्य आवरण के लिए अन्तःकरण को बुहारने, धोने, लीपने-पोतने की आवश्यकता पड़ती है। अवतरण बाद में होता है। दिवाली आने से पूर्व ही लक्ष्मी पूजन के लिए घरों की रँगाई-पुताई होती है। दूल्हा बारात लेकर आये, उससे पूर्व भी ऐसी ही सफाई सजावट होती है। दैवी अनुकम्पा जीवन में उतरे, इससे पूर्व उसे भी कुसंस्कारों से मुक्त करना पड़ता है। तपश्चर्या की प्राथमिकता है। योग साधना का कदम इससे आगे का है। राजयोग में यम-नियम पालने की मनोभूमि बनने पर ध्यान धारणा के अगले कदम उठते हैं।
उपासना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए आवश्यक है आत्मशोधन की प्रक्रिया पूर्ण की जाय। यह प्रक्रिया प्रायश्चित विधान से ही पूर्ण होती है। हठयोग में शरीर-शोधन के लिए नेति, घोति, वस्ति, न्यौली, बजोली, कपालभाति क्रियायें करने का विधान है। राजयोग में यह शोधन कार्य यम-नियमों के रूप में करना पड़ता है। भोजन बनाने से पूर्व चौका, चूल्हा, बर्तन आदि की सफाई कर ली जाती है। आत्मिक प्रगति के लिए भी आवश्यक है कि अपनी गतिविधियों का परिमार्जन किया जाय। गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारा जाय और पिछले जमा हुए कूड़े-करकट का ढेर उठाकर साफ किया जाय। आयुर्वेद के काया-कल्प विधान में स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन आदि कृत्यों द्वारा पहले मल शोधन किया जाता है तब उपचार आरंभ होता है। आत्म-साधना के सम्बन्ध में भी आत्म-शोधन की प्रक्रिया काम में लाई जाती है।
परिशोधन प्रयोजन के लिए तपश्चर्याओं के अनेकानेक विधि-विधान है। उन सब में सर्वसुलभ एवं अनेक दृष्टियों से सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली साधना आध्यात्मिक काया-कल्प की काया-कल्प चिकित्सा में शरीर में भरे हुए मल-विकारों की पूरी तरह सफाई की जाती है तथा ऐसे उपचार अपनाये जाते हैंं जिससे नये रक्त का नाड़ियों में संचार होने लगे, पाचन तंत्र नई स्फूर्ति के साथ काम करने लगे, माँसपेशियाँ फिर से कड़ी हो जायँ और नाड़ियों में प्राण-प्रवाह नयी चेतना के साथ बह निकले। चान्द्रायण तपश्चर्या को भी इसी स्तर का माना गया है। उसका मुख्य प्रयोजन परिशोधन होते हुए भी लगे हाथों परिष्कार का दुहरा सिलसिला भी चल पड़ता है।
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