आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आन्तरिक परिशोधन हेतु प्रायश्चित प्रक्रिया की अनिवार्यता
अध्यात्म साधना में अपने आपे को ईश्वर के रंग में रंगना होता है। तभी दोनों का वर्ण एक जैसा बनता है। इसके लिए सर्वप्रथम धुलाई करनी पड़ती है। कपड़े को बिना घोये रंगा जाय तो काम न चलेगा। वह तेल कीचड़ में डूबा हो तो रंगने के लिए लिए किया गया परिश्रम भी व्यर्थ चला जायगा। रंगाई को साधना और धुलाई को प्रायश्चित कहते हैं।
मैले कुचैले गन्दे कपड़े जिन्हें किसी का मन देखने, छ्ने, पहनने को नहीं करता, उन्हें शुद्ध, आकर्षक और पहनने योग्य स्थिति में बदल देना घोबी का काम है। हेय स्थिति को श्रेय में बदल देने का चमत्कार घोबी का हाथ ही कर दिखाता है। यह कार्य प्रायश्चित प्रक्रिया का है, वह मनुष्यों की गिरी-गन्दी जीवन स्थिति का काया-कल्प जैसा परिवर्तन करती है और देखते-देखते उच्च भूमिका में पहुँचा देती है।
धोबी कपड़े को गरम पानी में डालता है, उसका मैल फुलाता है, साबुन से गन्दगी को काटता है, पीटता है, घोता है, सुखाता है। इसके बाद कलफ लगाकर इस्त्री कर देता है। इतने क्रिया कलाप में होकर गुजर जाने पर गन्दा, पुराना, मैला कपड़ा नये से भी अधिक आकर्षक बन जाता है। प्रायश्चित में ठीक यही सब करना होता है।
अपनी गुण, कर्म, स्वभाव की मलीनताओं को समझना, इस जीवन में कि हुए पापों को स्मरण करना, उनके लिए दुःखी होना और यह सब छोड़ने के लिए प्रबल तड़पन का उत्पन्न होना-यही गरम पानी में कपड़े को डालना है।
दबे हुए, छिपे हुए मैल को फुलाकर स्पष्ट कर देना। अपनी जो बुराईयाँ, पाप-कृतियाँ छिपाकर रखी थीं उन्हें प्रकट कर देना। मन में दुराव की कोई गाँठ न रखना, भीतर बाहर से एक सा हो जाना-यह मैल का फुलाना है। आज की स्थिति में सर्वसाधारण के सम्मुख अपने दुश्चरित्र प्रकट कर सकने का साहस न होता हो तो कम से कम एक शोधक मार्गदर्शक के सम्मुख तो सब कुछ कह ही देना चाहिए। पाप का प्रकटीकरण पाप को हलका करता है और चित्त पर से भारीपन का बोझ उतारता है।
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