आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
समस्त व्याधियों का निराकरण आध्यात्म उपचार से
आधि भौतिक-आदि दैविक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों में उपजने वाली अनेकानेक विपत्तियाँ मनुष्य को संत्रस्त करती रहती हैं। उनके नाम-रूप अनेक होते हुए भी उद्गम एक ही होता है-अन्तःकरण पर कषाय-कल्मषों का आवरण, आच्छादन। समुद्र एक ही है किन्तु उसमें जीव-जन्तु अनेक आकार प्रकार के उत्पन्न होते रहते हैंं। अन्तराल एक है किन्तु उसमें सत्प्रवृत्तियों की सुखद-दुःखद सम्भावनाएँ चित्र-विचित्र रूप में प्रकट होती रहती हैं, उसी क्षेत्र का अवांछनीय उत्पादन मनुष्य को आधि-व्याधियों से भर देता है और प्रगति के मार्ग में पग पग पर अवरोध उत्पन्न करता है।
बहुत समय पहले शारीरिक रोगों को बाहरी भूत-पलीतों का आक्रमण माना जाता था। पीछे बात, पित्त, कफ, ऋतु का प्रभाव उन्हें माना गया। उसके बाद रोग कीटाणुओं के आक्रमण की बात समझी गई। रोगों का अगला चरण यह बना कि आहार की विकृति से पेट में सड़न पैदा होती और उस विष के अनुसार ऐसे व्यक्तियों में सामान्य मनुष्य की तरह एक नहीं, अपित दो भिन्न-भिन्न दृश्य जगतों का अनुभव होता है।
मनोविज्ञानियों ने व्यक्तित्व के अन्तर्द्वन्द्व को समस्त मनोविकारों एवं मनोरोगों की जड़ माना है। आधुनिक मनोविज्ञान व्यक्तित्व की परतों के अध्ययन, विश्लेषण तक सीमित है। अर्न्तद्वन्द्वों की समाप्ति किस प्रकार हो? इसके लिए इतना कहकर चुप हो जाता है कि परस्पर दो व्यक्तियों के रूप में विघटित मानवी सत्ता में एक्य स्थापित किया जाय तभी द्वन्द्वों से छुटकारा पा सकना सम्भव है। दूसरा व्यक्तित्व क्यों विकसित हो जाता है जो मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों में, अनैतिक गतिविधियों में निरत करता है। इस दिव्य द्वन्द्वात्मक स्थिति से छुटकारे के लिए कोई ठोस उपाय मनोविज्ञान नहीं बताता। आध्यात्म मनोविज्ञान की मान्यताएँ इस गुत्थी को सुलझाने में सहयोग देती हैं।
आध्यात्म मनोविज्ञान का कहना है कि मानवी अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से मिलकर हुई है। अन्तःकरण अन्तरात्मा का क्रीड़ा क्षेत्र है।
यहाँ से सदा सत्प्रेरणाएँ उभरती रहती है। अन्तःकरण की सद्प्रेरणाओं की उपेक्षा, अवहेलना करने तथा दुष्कृत्यों में निरत होने से अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न होती तथा मनुष्य को त्रास देती है। मनुष्य की मूलभूत सत्ता दैवी तत्वों से युक्त है तो क्यों कर कोई दुष्कर्मों की ओर आकृष्ट होता है? आध्यात्म विज्ञानी इसका कारण कर्मों के संस्कार को मानते हैंं। जन्म-जन्मान्तरों के पशुवत् संस्कार ही मानवी चेतना पर छाये रहते हैं। उनके अनुसार अचेतन परतों में जड़ तक गहरी जमी यह कालिमा ही द्विविभाजित व्यक्तित्व को जन्म देती है।
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