आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आगे चलकर योग वाशिष्ठ ग्रन्थ में इस प्रसंग का और भी अच्छी तरह खुलासा किया गया है-
संक्षोभात्साम्युर्त्स वहन्ति प्राणवायवः।
- ६।११८१।३२
असमं बहति प्राणे नाड्योयान्ति विसंस्थितिम्।
- ६।११८१।३३
काश्चिन्नाड्यः प्रपूर्णत्वं यान्तिकाश्चिच्चरिक्तताम्।
-६१।८१।३४
कुजीर्णत्वमजीर्णत्व मतिजीर्णत्वमेव वा।
दोषा यैव प्रपात्यन्नं प्राणसंचारदुष्क्रमात ॥
-६।१।८११३५
तथान्नानि नत्यन्तः प्राणवातः स्वामाश्रयम्।
-६।११८१।३६
यान्यन्ननि निरोधेन तिष्ठन्त्यन्तः शरीर के।
-६।१।८११३७
तान्येव व्याधितां यान्ति परिणामस्वभावतः।
-६।१।८११३५
एवमाघेर्मवेव्याधिस्तस्याभावाच्च नश्यति॥
-६।१।८१।३९
अर्थात चित्त में उत्पन्न हए विकार से ही शरीर में दोष पैदा होते हैंं। शरीर में क्षोभ या दोष उत्पन्न होने से प्राणों के प्रसार में विषमता आती है और प्राणों की गति में विकार होने से नाड़ियों के परस्पर सम्बन्धों में खराबी आ जाती है। कुछ नाड़ियों की शक्ति का तो प्राव हो जाता है, कुछ मे जमाव हो जाता है।
प्राणों की गति में खराबी से अन्न अच्छी तरह नहीं पचता। कभी कम कभी अधिक पचता है। शरीर के सक्षम यंत्रों में अन्न के स्थल कण पहुँच जाते और जमा होकर सड़ने लगते हैंं, उसी से रोग उत्पन्न होते हैंं। इसी प्रकार आधि (मानसिक रोग) से ही व्याधि (शारीरिक रोग) उत्पन्न होते हैं। उन्हें ठीक करने के लिए मनुष्य को औषधि की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी यह कि मनुष्य अपने बुरे स्वभाव और मनोविकारों को ठीक कर ले।
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