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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


इस कथन की पुष्टि में श्री मैकडोनल्ड अमेरिका का उदाहरण देते हए कहते हैं-'अमेरिका के बीमारों में आधे ऐसे होते हैंं, जिनमें ईर्ष्या, द्वेष, स्पर्धा, क्रोध, धोखे-बाजी आदि भाव प्रभुत्व जमाये होते हैंं। जो इस प्रकार मानसिक रोगी होते हैं, वे अपनी भावनाओं का नियंत्रण नहीं कर सकते, उनका व्यक्तित्व अस्त-व्यस्त हो जाता है, उसी से वे उल्टे काम करते और बीमारियों को बढ़ाते हैंं।' आगे दुश्चिन्ता की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करते हुए श्री मैकडोनल्ड लिखते हैं-“मानसिक चिन्ताओं द्वारा रक्त के अन्दर 'एड्रेनलीन' नामक हारमोन की अधिकता हो जाती है, उसी से श्वास फूलना, कम्पन, चक्कर आना, बेचैनी, दिल धड़कना, पसीना आना और दुःस्वप्न बनते हैंं। दौरे और बड़ी बीमारियाँ भी किसी न किसी मानसिक ग्रन्थि के ही परिणाम हो सकते हैंं, जिसे डाक्टर नहीं जानता, कई बार मनुष्य भी नहीं जानता, पर व्याधियों होती मन का कुचक्र ही है।"

इस सम्बन्ध में भारतीय मत बहुत स्पष्ट है। यहाँ जीवन को इतनी गहराई से देखा गया है कि आधि-व्याधि के मानसिक कारण पाप-ताप के संस्कार रूप में स्पष्ट झलकने लगते हैंं। योग-वाशिष्ट में ऋषि कहते हैं-

यित्ते विधुरते देहः संक्षोभमनुयात्यलम्।
- ६१८१०३०
चित्त में गड़बड़ होने से शरीर में गड़बड़ होती है।

इदं प्राप्तमिदं नेयि जाड्याद्धा घनमोहदाः।
आधयः सम्प्रवर्तन्ते वर्षासु मिहिका इव।।
- ६/११८१११६
अन्तर्द्वन्द्व और अज्ञान से मोह में डालने वाले मानसिक रोग पैदा होते हैंं, फिर शारीरिक रोग इस तरह पैदा हो जाते हैंं, जैसे बरसात के दिनों में मेंढक अनायास दिखाई देने लगते हैंं।

दुष्काल व्यवहारेण दुष्क्रिया स्फुरणेन च।
दुर्जना संगदोषेण दुर्भावोद्भावनेन च।
क्षीणत्वादा प्रपूणत्वन्नाडीनां रन्धूसन्ततौ।
प्राणे विधुरतां याते काये तु विकलीकृते।
- ६।११८१।४।१९
दौस्थित्यकारणं दोषादयाधिदेहे प्रवर्तते।
अनुचित समय पर अनुचित काम करने से, बुरे लोगों के पास बैठने से मनुष्य मन में पाप और बुरी भावनाओं को स्थान देने लगता है। ऐसा होने पर नाड़ियाँ अपनी सामान्य कार्य-प्रणाली बंद कर देती है। कुछ नाड़ियों की शक्ति नष्ट हो जाती है, कुछ अधिक शक्तिशाली हो जाती है, जिससे प्राण का बहाव उलटा-पुलटा हो जाता है। प्राण संचार में गतिरोध उत्पन्न होने पर ही शरीर की स्थिति बिगड़ती और उसमें तरह-तरह के रोग पैदा हो जाते हैंं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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