आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कल्पकाल की आहार साधना
परिस्थितियों को बदलना मनःस्थिति के हाथ में है। अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं का रोना तो भीरू, कायर, जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ व्यक्ति रोते हैंं। परिस्थितियों का सम्बन्ध बाह्य व्यक्तियों तथा सुविधाओं पर जितना निर्भर माना जाता है, उससे कहीं अधिक व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव पर निर्भर है। यदि व्यक्तित्व में बहिरंग को बदल डालने-अपने परिकर का कायाकल्प कर डालने की सामर्थ्य है तो कोई भी व्यवधान प्रगति को नहीं रोक सकता। यह तो मन का प्रमाद व अचेतन का ढर्रा है जो, "जैसा कुछ है वैसा ही चलने दो" की स्थिति के लिए विवश करता है। मनुष्य एक जीता जागता चुम्बक है जो अपने स्तर के अनुरूप परामर्श, वातावरण सहयोग, साधन चुपके-चुपके खींचता रहता है। उसके आस-पास वैसा ही परिकर जुट जाता है जैसी कि मनःस्थिति होती है। चोर, जेबकट, सन्त, सज्जन, पराक्रमी, पुरुषार्थी, आलसी, दरिद्र, दुव्यर्सनी अपने-अपने ढंग का समाज, अपने अनुकूल परिस्थितियाँ अपने चारों ओर बना लेते हैंं। परिकर व साधन के समन्वय को परिस्थिति कहते हैंं। अपवाद तो कहीं न कहीं बनते हैंं। उत्थान और पतन के लिए मनुष्य स्वयं ही उत्तरदायी होता है। इस कथन को बार-बार समझना, आत्मसात कर लेना चाहिए।
इस केन्द्र स्थली मनःसंस्थान को कैसे पवित्र, परिष्कृत बनाया जाय। इसके दो उपाय पहले ही बताये गये है। एक-चिंतन-मनन द्वारा अन्तःप्रेरणा उभारने और तदनुरूप जीवन की दिशा-धारा को बदलने का भावनात्मक उपाय और दूसरा-साधना-तपश्चर्या के दबाव से संचित कुसंस्कारों को गलाने और उन्हें सुसंस्कारिता के ढाँचे में ढालने का क्रियात्मक उपाय। चिन्तन की परिष्कृति ही योग है और चरित्र में निखार लाने वाली प्रक्रिया 'तप'। कल्प साधना में इन दोनों का समन्वय है। प्रगति पथ पर अग्रगमन इन दो पहियों पर ही सम्भव हो पाता है। प्रश्न यह उठता है कल्प साधना के इस दर्शन को व्यवहार में किस प्रकार उतारें? दैनिक जीवन में तप तथा योग का समावेश न्यूनाधिक रूप में किस प्रकार बन पड़े? इसके लिए आहार से अन्तःकरण पर प्रभाव तथा उसके माध्यम से आंतरिक परिशोधन की प्रक्रिया को समझना होगा।
मन शरीर का एक भाग है। उसे ग्यारहवीं इन्द्रिय भी कहा जाता है। शरीर आहार से ही बनता है। इस कारण प्रकारान्तर से आहार के स्तर को ही शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन का आधारभूत कारण माना गया है। अभक्ष्य को उदरस्थ करने वाला, अनावश्यक मात्रा में खाने वाला धर्मोपदेशक भले ही बन सके, साधक धर्मात्मा नहीं बन सकता। इसलिए पूजा उपचार की तरह ही कल्प-प्रक्रिया में आहार साधना पर अत्यधिक ध्यान देना होता है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा-कीर्तन एवं धर्मानुष्ठानों की तरह ही आहार में सात्विकता एवं सदाशयता का समावेश भी आत्मिक प्रगति के अनिवार्य आधारों में सम्मिलित रखा गया है। कल्पकाल की साधना को आत्मोत्कर्ष के प्रयासों में मूर्धन्य इसलिए भी कहा गया है कि इसमें धर्मानुष्ठानों से अधिक आहार नियमन पर ध्यान दिया गया है। आहार निग्रह के उपरान्त मनोनिग्रह कठिन नहीं रह जाता। मन को यदि सदाशयता की ओर मोड़ा जा सके तो दृष्टि बदलते ही आत्मिक प्रगति के मार्ग में फिर कोई बड़ी बाधा शेष नहीं बच रहती। आहार कल्प की महत्ता को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए।
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