आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
यावत स्वस्थोऽस्ति मे देहो यावन्नेन्द्रियविक्लवः।
तावत स्वश्रेयसां हेतः तीर्थयात्रां करोम्यहम्॥
जब तक मेरा शरीर स्वस्थ है, जब तक आँख, कान आदि इन्द्रियाँ सक्रिय है, तब तक श्रेय प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा करते रहने का निश्चय करता हूँ।
क्रिया कर्मेण महता तपसा नियमेन च।
दानेन तीर्थयात्रामिश्चिरकालं विवेकतः।।
दुष्टकतैः क्षयमापन्ने परमार्थ विचारणे।
काकतालीय योगेन बुद्धिर्जन्तो प्रवर्तते।।
बहुत दिनों तक यज्ञ-दानादि करने से, कठिन तपस्या, नियमपालन, तीर्थयात्रा आदि से विवेक बढ़ता है और इनके द्वारा बुरे कर्मों का नाश हो जाने पर, काकतालीय न्याय से मनुष्य में परमार्थ बुद्धि प्रस्फुटित हो जाती है।
इतना भर हो सके तो यह सोचा जा सकता है कि प्रगति की दिशा में कुछ कदम चल पड़े। सतत अभ्यास से चिंतन एवं कृत्य भी उसी रंग में रंगने लगते हैं। अपना आपा विस्तृत नजर आता है और उदार आत्मीयता का विस्तार होने लगता है।
प्रायश्चित के रूप कल्प साधना की पूर्णाहति में इस प्रकार की क्षतिपूर्ति के लिए जो सम्भव हो, वह करना चाहिए। मात्र भोजन में थोड़ी कटौती करने और कुछ घण्टों की पूजा-उपासना को ही कल्प तपश्चर्या की इतिश्री नहीं मान लेना चाहिए।
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