आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आज की तथाकथित तीर्थयात्रा मात्र देवालयों के दर्शन और नदी सरोवरों के स्नान आदि तक सीमित रहती है। यह पर्यटन मात्र है। इतने भर से तीर्थयात्रा का उद्देश्य पूरा नहीं होता है। सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के लिए किया पैदल परिभ्रमण ही तीर्थयात्रा कहलाता है। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए श्रेष्ठ उपचार भी है। धर्म प्रचार के लिए जन-सम्पर्क साधने का पैदल परिभ्रमण जन समाज को उपयुक्त प्रेरणायें प्रदान करता है। साथ ही उससे श्रमदान कर्ता की सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन भी होता चलता है। ऐसे ही अनेक कारणों को ध्यान में रखकर तीर्थयात्रा को ऐसा परमार्थ कहा गया है जिसे कर सकना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव हो सकता है। तीर्थयात्रा का स्वरूप और महात्म्य शास्त्रकारों ने इस प्रकार बताया है-
नृणां पापकृतां तीर्थे पापस्य शमनं भवेत्।
यथोक्त फलदं तीर्थ भवेच्छुद्धात्मनां नृणाम्॥
पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शांति होती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, ऐसे मनुष्यों के लिए तीर्थ यधोक्त फल देने वाला है।
तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रद्धायुक्तं समाहितः।
कृतपापों विशुद्धश्चे किं पुनः शुद्ध कर्मकृत।।
जो तीर्थों का सेवन करने वाला धैर्यवान, श्रद्धायुक्त और एकाग्र चित्त है वह पहले का पापाचारी हो तो भी शुद्ध हो जाता है, फिर जो शुद्ध कर्म करने वाला है, उसकी तो बात ही क्या है।
तीर्थानि च यथोक्तेन विधिनां संचरन्ति ये।
सर्वद्धन्दसहा धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः।।
जो यथोक्त विधि से तीर्थयात्रा करते हैंं, सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहन करने वाले हैं, वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैंं।
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