आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
237 पाठक हैं |
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
सोऽपि पापविशुद्धार्थ चरेच्चान्द्रायणं व्रतम्।
व्रतान्ते पुस्तकं दद्यात धेनुं वत्ससमन्वितम्।।
- शात्तायन
पापों की शुद्धि के लिए चान्द्रायण व्रत करे और व्रत के अन्त में श्रेष्ठ ग्रन्थ और बछड़े सहित गौ दान करे।
सुवर्ण गोदानं भूमिदानं तथैव च।
नाशयन्त्याशु पापानि अन्यजन्मकृतान्यपि।।
- सम्वर्त
सुवर्ण का दान, गौदान एवं भूमिदान शीघ्र ही पूर्व जन्म के पापों को नष्ट कर देते हैं।
इन अभिवचनों में सत्साहित्य वितरण, विद्यादान, वृक्षारोपण, कुआँ, तालाब, देवालय आदि का निर्माण-यज्ञ, दुःखियों की सेवा, अन्याय पीड़ितों के लिए संघर्ष आदि अनेक शुभ कर्मों में क्षति की पूर्ति के रूप में अधिक से अधिक उदारतापूर्वक दान देने का विधान है। इस दान श्रृंखला में गौदान को विशेष महत्व दिया गया है।
पाप निवृत्ति और पुण्य वृद्धि के दोनों प्रयोजनों की पर्ति के लिए तीर्थयात्रा को शास्त्रकारों ने प्रायश्चित तप साधना में सम्मिलित किया है। तीर्थयात्रा का मूल उद्देश्य है धर्म प्रचार के लिए पदयात्रा। दूर-दूर क्षेत्रों में जन सम्पर्क साधने और धर्म धारणा को लोक-मानस में हृदयंगम कराने का श्रमदान तीर्थयात्रा कहलाता है। श्रेष्ठ सत्पुरुषों के सान्निध्य में प्रेरणाप्रद वातावरण में रहकर आत्मोत्कर्ष का अभ्यास करना भी तीर्थ कहलाता है। यों गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए किये गये प्रबल प्रयासों को भी तीर्थ कहते हैंं। प्रायश्चित विधान में इसी प्रकार की सार्थक तीर्थयात्रा की आवश्यकता बताई गई है।
|