आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आमतौर से लोग दो समय भोजन करते हैंं। इसलिए यह मान लिया गया है कि एक समय भोजन करने से काम चलाया जाना चाहिए। यह आहार उतना ही होना चाहिए जितना कि नित्य प्रति होता है। शाम के बदले का भी दोपहर को खाने की, इसी समय दना, ड्योढ़ा कर लेने की चतुरता करनी हो तो बात दूसरी है।
ऊँट एक दिन पानी पीकर एक सप्ताह तक रेगिस्तान में चल लेता है। उतना पानी पेट में भर लेता है कि एक सप्ताह तक फिर पीने की आवश्यकता न पड़े। मगर भेड़ के बच्चे को, साँप-मेंढक को, व्याघ्र-हिरन को इतनी मात्रा में खा लेता है कि फिर कई दिन तक मुख खोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती। तीर्थ-पुरोहित भी ऐसा ही करते हैंं। एक समय में इतना 'छक लेते हैंं कि दूसरे समय की तो बात ही क्या-दूसरे दिन भी न मिले तो पेट कुछ माँगेगा नहीं। यह नीति कल्प साधकों को अपनानी हो तो फिर उपवास वैसा ही मखौल बन जायेगा जैसा कि एकादशी व्रत करने वाले तथाकथित फलाहारी माल-मलाई इतनी ठूस लेते हैंं कि पेट को हाहाकार करना पड़े। साधकगण भी ऐसी ही दिल्लगीबाजी उपवास में करने लगे तो यह तपश्चर्या न रहकर आत्म-प्रवंचना ही बन जायेगी।
गायत्री तीर्थ की उपवास चर्या को ऐसा संतुलित रखा गया है कि उससे न खाली पेट रहने से उत्पन्न होने वाली कठिनाई का सामना करना पड़े और न पेट को विश्राम मिलने के उद्देश्य में व्यतिरेक उत्पन्न हो। मात्रा घटाना तो हर हालत में आवश्यक ही है। दोपहर को उतनी ही मात्रा में निर्धारित आहार लिया जाय, जितना कि आमतौर से लिया जाता है। न कम, न अधिक। इसी में कल्प काल की तप-तितिक्षा की सार्थकता भी है।
इस साधना के साथ अस्वाद व्रत भी जुड़ा है। बिना मसाले का, नमक का भोजन खाने का सबका अभ्यास भी नहीं होता। प्रकृति में विद्यमान लौकी, तोरई, गाजर, परवल जैसे शाक, खरबूजा, आम, पपीता जैसे सस्ते फलों पर ही निर्वाह भी एक माह तक किया जा सके तो मानना चाहिए कि एक बहुत बड़ी तप साधना आज के युग में सघ गयी। शाकाहार व दुग्ध आहार कल्प से भी सीधी सादी अमृताशन अथवा एक ही आहार कल्प की साधना है। शांतिकुंज में अब ब्बाइलर व्यवस्था द्वारा भाप से अन्न, शाक या खिचड़ी को पकाकर हर साधक को वन्दनीय माताजी द्वारा अपने हाथ से दिया जाता है। अपनी खुराक को निर्धारित करने का आत्मानुशासन साधक को अपनाना होता है। पकने के पूर्व वन्दनीय माताजी अपने हाथ से संस्कारित जल तथा औषधि, सही मात्रा में हल्दी प्रत्येक के पात्र में डालती है। पकने पर सभी साधक अपने-अपने पात्र अपनी कोठरी में ले जाकर ग्रहण करते हैंं व उसी में संतोष करते हैंं। पदार्थ की कारण-शक्ति के माध्यम से अन्तः की चिकित्सा का यह निर्धारित विधान सभी को रुचता भी है। साथ में जड़ी-बूटी का कल्प भी जुड़ जाने से समग्र कायाकल्प की संभावनाएँ सुनिश्चित बन जाती है। आहार कल्प एवं जड़ी बूटी कल्प के व्यवहार पक्ष को अलग से समझाया गया है। यहाँ तो मात्र उसका दर्शन एवं कायाकल्प की सुनिश्चितता का स्पष्टीकरण है। हर साधक को अध्यात्म उपचारों को उत्तरार्ध तथा आहार साधना को कल्प का पूर्वार्ध मानना चाहिए।
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