आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
237 पाठक हैं |
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
वैसे कल्प में दुग्ध, मट्ठा अथवा फलाहार किसी भी एक की पूरी छूट है। लेकिन फलाहार की तुलना में शाकाहार कहीं अधिक सस्ता एवं लाभदायक बैठता है। मात्रा का संतुलन भी ऐसा बँट जाता है कि कुसंस्कारी पाचन संस्थान को नये ढर्रे में ढलने में कोई कठिनाई नहीं होती, 'कल्क' अच्छा बन जाने से नित्य पेट का शोधन होता रहता है तथा उदरशूल, कब्ज, अपच जैसी कठिनाई भी नहीं रहती। वैसे गेहूँ का दलिया अथवा अमृताशन भी एक प्रकार से शाकाहार या फलाहार के समतुल्य ही है। जिसका मनोबल हो वे एक महीने शाकाहार या अमृताशन पर निभा सकते हैंं। उनके लिए स्वयं पका लेने के सभी साधन शांतिकुंज में मौजूद हैं। जो खिचड़ी, दाल, चावल, दलिया आदि स्वयं पका सकें, उनके लिए वैसी साविधा भी उपलब्ध करा दी जाती है। शांतिकुंज के भोजनालय में सबके लिए एक जैसी व्यवस्था है। शाक, कोयला, अँगीठी, बर्तन, दलिया, चावल, दाल आदि सभी वस्तुएँ हर किसी के लिए उपलब्यध है जिन्हें जैसी सुविधा हो वे वैसी व्यवस्था कर सकते हैंं।
आहार की मात्रा पर इतना ही अंकश रखा गया है जिससे पेट सर्वथा खाली भी न रहे और उपवास की मर्यादा के अन्तर्गत उसे सीमित मात्रा में खाली भी रखा जा सके। अमृताशन उस आहार को कहते हैंं जिसे भगौने में पकाया जा सके। चावल, दाल, दलिया, दूध, खिचड़ी, शाकाहार जैसे उबालकर बनाये जाने वाले सभी पदार्थ अमृताशन की मर्यादा में आते हैंं। उन्हें उपवास में सम्मिलित किया जाय और फलाहार समतुल्य माना जाय तो हर्ज नहीं।
आहार पर चढ़े हुए कुसंस्कारों का परिशोधन करने के लिए गौ मूत्र की महत्ता शास्त्रकारों ने बताई है। इन दिनों जिस प्रकार खाद्य पदार्थ उत्पन्न किये जाते हैंं उससे उनकी सात्विकता चली जाती है और ऐसे तत्व मिल जाते हैंं जिन्हें तामसिक ही कहा जा सकता है। रासायनिक खादों का, सीवर लाइनों की गन्दगी का उपयोग अधिक उपज लेने की दृष्टि से किया जाता है। कीड़े मारने की दवाएँ फल पर व गोदामों में छिड़की जाती हैं। फिर उनके बोने, उगाने वालों के भी अपने संस्कार होते हैंं जो खाद्य पदार्थों में मिले होते हैंं। फलतः उन पर अदृश्य कुसंस्कारिता छाई रहती है। अध्यात्मवादी का आहार कुसंस्कारिता से रहित होना चाहिए। "जैसा खाये अन्न वैसा बने मन" के प्रतिपादन में साधक की साधना का प्रथम चरण सात्विकता से आरम्भ होता है। सात्विकता का अर्थ सुपाच्य ही नहीं सुसंस्कारी भी है। पकाने-परोसने में भी इस सुसंस्कारिता का समावेश होना चाहिए। वैसी सुविधा न हो तो फिर अपने हाथ ही पकाना उत्तम है। साधक स्वपाकी रहे तो दूसरे के द्वारा पकाए आहार की तुलना में इन दिनों इस सन्दर्भ में अधिक निश्चिन्तता रह सकती है।
|