आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
खाद्य पदार्थों को गौ मूत्र से परिशोधन की प्रक्रिया चान्द्रायण की भोजन व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है। जौ, तिल, चावल आदि खाद्य पदार्थ गौ मूत्र में भिगोकर बोने, उगाने, जमा करने की अवधि में चढ़े हुए कुसंस्कारों से मुक्त किया जाता है। सफाई करने से लेकर आटा पीसने, दाल दलाने की आश्रम में निजी व्यवस्था है। बाजार की तुलना में कहीं अधिक मँहगी पड़ती है फिर भी प्रबन्ध यही किया गया है कि भले ही अन्नाहार हो पर उस पर सुसंस्कारिता फलाहार से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हो। चान्द्रायण साधना में गौ सान्निध्य का अत्यधिक माहात्म्य बताया जाता है। गौ मूत्र सेवन की भी चर्चा है। इसका प्रतीक रूप में परिपालन कल्प साधना में किया जाता है। पंच गव्य में गौ दुग्ध, गौ दधि, गौ घृत की प्रमुखता रहती है। गौमूत्र की कुछ बूंदें ही सही पर प्रायश्चित परम्परा के अनुसार समावेश उसका भी आंशिक रूप से रहता है। इसके अतिरिक्त जो भी धान्च साधक इस एक महीने की अवधि में सेवन करते हैं वह सभी गौ मूत्र में भिगोया-भिगोकर गंगाजल से धोया-धोकर सुखाया और सुखाकर आश्रम में ही पीसा गया होता है। बनाने की प्रक्रिया दो ही हैं या तो माताजी के चौके में बना हो या अपने हाथों पकाया गया हो। बाजारू वस्तुएँ खाने, खरीदने पर पूरी रोक हो। चटोरेपन से लालायित होकर बाजारू चीजें खरीदना-खाना पुरानी आदत को भले ही रुचिकर लगे पर उससे तपश्चर्या की व्यवस्था बिगड़ती है। अपने कक्ष में आहार को करते समय भी यह संयम बनाये रखना अत्यन्त अनिवार्य है।
उपवास पक्ष पर विचार करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि पेट को खाली रखना ही मात्र उद्देश्य नहीं है। उसका मूलभूत प्रयोजन सात्विक, सुसंस्कारी, चटोरेपन से रहित आहार अपनाना भी है। पेट पर वजन कितना लदा, कितना हल्कापन रखा गया इस सम्बन्ध में थोड़ी रियायत समय की स्थिति को देखते हुए दी गई है। परिस्थितियों की विवशता, लोगों की स्वल्प तितिक्षा क्षमता को ध्यान में रखते हुए ही यह शिशु या चान्द्रायण जैसा उपक्रम अपनाया गया है। इतने पर भी इस आध्यात्मिक प्रयोजन के निमित्त की गई आहार चिकित्सा में सैद्धांतिक कड़ाई यथावत् कायम रखी गई है। आहार की सात्विकता, सुसंस्कारिता, औषधि स्तर की स्थिति हर हालत में कायम रखी ही जानी चाहिए। चटोरेपन की अभ्यस्त आदत तथा पेट को ढूंस-ठूस कर गधे की तरह लादे रहने की विद्रूपता तो हर हालत में रोकी या छोड़ी जानी है। इतनी व्रतशीलता अपना लेने पर कल्प साधना की उपवास प्रक्रिया अक्षण्ण रखी जा सकेगी। भले ही आहार की मात्रा के सम्बन्ध में कुछ शिथिलता सुविधा जुड़ी रहे।
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