आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कल्प साधना में भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की विविध क्रिया-प्रक्रियाओं का समन्वय है। गायत्री उपासना एवं ध्यान-धारणा को भक्तियोग समझा जाना चाहिए। स्वाध्याय-सत्संग स्थूल और चिन्तन मनन सूक्ष्म ज्ञानयोग की पूर्ति करता है। व्रत-उपवास के अनुशासक कर्मयोग का अभ्यास कराते हैंं। इस समन्वय से तीनों शरीरों को परिष्कृत करने वाली तीन प्रकार की विधि-व्यवस्था के अन्तर्गत समूचे व्यक्तित्व की ढलाई-गलाई होने लगती है। इस समग्र समन्वय की कार्यपद्धति से ही कल्पसाधना का तात्विक प्रयोजन पूर्ण होता है। मात्र उपवास या जप का उपक्रम चलता रहे और हर क्षेत्र को उत्कृष्टता की दिशा में धकेलने वाले अन्यान्य अनुबन्धों की उपेक्षा होती रहे तो समझना चाहिए कि बाह्य कलेवर की ही व्यवस्था बनाई गई है। उसमें प्राणसंचार करने वाली आध्यात्मिक प्रखरता उत्पन्न करने में समर्थ भावनात्मक तपश्चर्याओं का समावेश नहीं किया गया है। सर्वविदित है कि कलेवर कितना ही सुन्दर क्यों न हो, उसमें प्राण नहीं होगा तो अभीष्ट हलचल उत्पन्न होने और परिणति का लाभ मिलने जैसा अवसर ही उत्पन्न न होगा।
कल्प साधना के साथ जुड़े हुए उपरोक्त तथ्यों को समझने के उपरान्त ही वह सरंजाम जुटाना सम्भव हो सकेगा जिसके फलस्वरूप शास्त्रवर्णित सत्य परिणामों की सम्भावना को प्रत्यक्ष होते हुए देखा जा सकेगा। समग्र व्यवस्था का परिणाम ही समग्र होता है। आवश्यक सभी साधन जुटने पर ही महत्वपूर्ण कार्यों का सूत्र संचालन होता है। रसोई बनानी हो तो आग, बर्तन, खाद्य पदार्थ, पानी आदि सभी चीजें चाहिए। इनमें से किसी एक को पकड़ बैठा जाय तो पेट भरने का सरंजाम किस प्रकार बनेगा। बढ़ई, लुहार, दर्जी, चित्रकार, मूर्तिकार आदि को सभी उपकरण एकत्रित करने पड़ते हैंं। यदि उनके हाथ में एक ही औजार हो तो कुछ कारगर निर्माण बन नहीं सकेगा। अकेली सुई लेकर दर्जी, आरी लेकर बढ़ई, हथौड़ा लेकर शिल्पी अपनी कलाकारिता का परिचय दे नहीं सकता। बात तभी बनेगी जब सभी आवश्यक' उपकरण जुटाकर समग्र व्यवस्था बनाने की तैयारी चल पड़े।
कल्प में उपवास की प्रमुखता से किसी को यह नहीं मान लेना चाहिए कि देवता को प्रभावित करने एवं आसमान से वरदान खींच लेने के लिए इतना सा स्वल्प उपचार अपनाने भर से काम चल जायेगा। जितना महत्व शरीर साधना के रूप में उपवास अनुष्ठान का है, उससे कम आवश्यकता श्रद्धा एवं प्रज्ञा को प्रभावित करने वाली उस विधि-व्यवस्था का भी नहीं है जो अन्तःकरण को मथ डालती है, चिंतन की दिशाधारा बदलती है और स्वभाव तथा अभ्यास में क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित करती है।
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