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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


उपरोक्त विधान पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि ऐसे उपचारों में अभिनव निर्धारण को जीवनचर्या में पूरी तरह समाविष्ट होने का अवसर दिया जाता है। साथ ही पुरातन अभ्यासों को, बाहरी वातावरण के दबावों को उन दिनों न पड़ने देने की विशेष रूप से रोकथाम की जाती है। महान परिवर्तन के लिए ऐसा होना स्वाभाविक है।

भ्रूण को नौ माह तक माता के गर्भ में रहना पड़ता है। अण्डे के कड़े छिलके का आच्छादन उसके भीतरी भाग को चारों से घेरे रहता है। इससे दोनों प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। बाहरी दबाव से बचाव भी और भीतरी क्षेत्र में समयानुसार पकने, परिपक्व होने की सुविधा भी इस आच्छादन से मिलती है। इस संरक्षण के अभाव में न तो गर्भस्थ शिशु का विकास होगा, न अण्डा पकेगा। इसके अतिक्ति एक बात और भी है कि उन्हें बाहरी गर्मी मिलनी चाहिए। अण्डे के ऊपर मुर्गी अपनी छाती लगाये बैठी रहती है और उसे आवश्यक गर्मी प्रदान करके पकने की स्थिति तक पहुँचाती है। पेट के बच्चे को भी माता गर्मी की, आहार की व्यवस्था अपने शरीर अनुदान द्वारा प्रदान करती है। यह भी एक प्रकार का कायाकल्प ही हुआ। अपनी इस विशिष्ट साधना को भी आत्मिक कल्पसाधना का रूप दिया गया है। उसके लिए सर्वप्रथम उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। ऐसा वातावरण जहाँ अनुपयुक्त वातावरण से बचाव हो सके, उपयुक्त सुविधा तथा अनुभवी मार्गदर्शन उपलब्ध हो एवं उस प्रयास को सफल बना सकने वाला सहयोग अनुदान मिल सकने की व्यवस्था हो। निश्चय ही यह व्यवस्था घर के वातावरण में रहकर सम्भव नहीं हो सकती। अभ्यस्त ढर्रा अनायास ही अपनी ओर खींचता रहता है। पुरानी आदतें तथा स्थानीय समस्याएँ नये प्रयास में मन को पूरी तरह लग सकने जितना अवसर नहीं देतीं। आदतें बदलनी हों तो वातावरण भी बदलना चाहिए। चोरों को जेलखाने में इसीलिए रखा जाता है कि पुराने सम्पर्क एवं कार्यक्षेत्र से अलग रखकर उसे नयी रीति-नीति अपनाने के लिए विवश किया जा सके। जेल प्रतिशोध, उत्पीड़न के लिए नहीं, सभ्य देशों में सुधारगृह की तरह प्रयुक्त की जाती है। यही बात योगियों के वन की गुफा, कन्दराओं में रहकर स्वेच्छापूर्वक एकान्त सेवन वाली व्यवस्था में भी सन्निहित है। वे अपने को नये ढाँचे में ढालना चाहते हैं किन्तु चारों ओर फैला हुआ वातावरण उन्हें अभ्यस्त शिंकजे की जकड़नों से बाहर नहीं निकलने देता। कठिनाई का हल न देखकर वे उतने समय के लिए एकान्त के निमित्त चले जाते हैंं जितने में अभ्यस्त ढरे को बदलने की मंजिल दूर तक पार न कर ली जाय। गुरुकुल आरण्यकों की शिक्षा पद्धति में भी यही विशेषता है।

भगवान राम को तप-साधना के लिए अयोध्या छोड़कर हिमालय जाना पड़ा था। चारों भाई गुरु वशिष्ठ की गुफा के इर्द-गिर्द अपनी-अपनी पर्णकुटी बना कर रहे थे। यों अयोध्या में सुविधाजनक निवास की उनके लिए कोई कमी कठिनाई नहीं थी। फिर भी देखा गया कि उस क्षेत्र के साथ जुड़े हुए चिरकालीन सम्बन्ध किसी न किसी बहाने खटपट करते रहेंगे और चित्त में विक्षेप रहने से आन्तरिक परिष्कार के लिए आवश्यक सुविधा जुटेगी नहीं। अस्तु उन्हें लाभ के लिए छोटी हानि उठाने का सिद्धांत अपनाकर वन गमन करना पड़ा। यही परम्परा अन्य ऋषि तपस्वी अपनाते रहे है। उन्हें अपनी जन्मभूमि में स्थान सम्बन्धी असुविधा नहीं थी किन्तु वातावरण घर खींच कर कैसे लाया जाय? गंगा अपने घर आने के लिए किसी प्रकार सहमत की जाय ऐसा न होकर अपने को ही उसके पास जाना पड़ता है। उच्चस्तरीय साधना के लिए जैसे वातावरण की, साधन-सुविधा की आवश्यकता है उसके लिए अभी भी गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तपोभूमि एवं उपयुक्त मार्गदर्शन जैसी सुविधाएँ गायत्री तीर्थ जैसे स्थानों में उपलब्ध हो सकती हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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