आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कल्प अवधि का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि उन दिनों का तीर्थ सेवन स्थान की दृष्टि से ही एकान्त न माना जाय वरन पूर्णतया अन्तर्मुखी जाय। यह समय विशुद्ध रूप से अन्तर्जगत में प्रवेश करने का है। इसमें अन्तराल की आत्मसत्ता का अति गम्भीरतापूर्वक निरीक्षण परीक्षण किया जाय। जो अवांछनीयताएँ स्वभाव का अंग बन गई हैं उनके दुष्परिणामों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय और देखा जाय कि सामान्य सी लगने वाली ये छोटी-छोटी दुष्प्रवृत्तियाँ कितनी विघातक होती हैं। लकड़ी में घुन, कपड़े में आग, शरीर में विष की मात्रा थोड़ी होने पर भी वे जहाँ बसते हैंं, वहाँ धीरे-धीरे विनाशलीला रचते रहते हैंं और अन्ततः सर्वनाश करके छोड़ते हैं। इस कुसंस्कारिता की गंदगी को हर कोने में बुहार-बुहार कर इकट्ठी करना और ऐसे स्थान पर पटकने की बात सोचना चाहिए जहाँ से उसकी फिर वापसी न होने पाए। कल्पसाधना के दिनों में अन्तर्मुखी होकर यह बुहारने का काम रुचिपूर्वक किया जाना चाहिए। साथ ही शेष आधा चिन्तन इस तथ्य पर नियोजित रखना चाहिए कि जिन सत्प्रवृत्तियों का संचय सम्वर्धन अभी तक नहीं किया जा सका उनकी पूर्ति के लिए दूरगामी योजना बना ली जाय और उसका शुभारम्भ इन्हीं दिनों में व्रतशील होकर कर दिया जाय।
आत्म निरीक्षण, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास के चार चरण आत्मिक प्रगति के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है। मनः संस्थान एवं भाद संस्थान को इन दिनों पूरी तरह उसी क्षेत्र को सुव्यवस्थित एवं उज्ज्वल सम्भावनाओं से भरा पूरा बनाने में निरत रखा जाना चाहिए। उपवास, अनुष्ठान एवं आहार कल्प तो साथ-साथ चलता ही रहेगा।
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