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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


सूरत में मोटा महाराज का आश्रम भी इसी परम्परा के अनुरूप चलता है। व्रज चौरासी कोस परिक्रमा के यात्री भी आदि से अन्त तक संकल्पित तितिक्षाओं का पालन करते हैंं। वृन्दावन के 'टट्टिया आश्रम' में बाँस की टट्टी का बाड़ा बना हुआ है। साधक उस बाड़े की परिधि में ही रहते हैं। बाहर नहीं जाते। इस अनुबन्ध का मूल उद्देश्य एक ही है कि साधकों की मानसिक परिधि भी निर्धारित सीमा-मर्यादा में ही केन्द्रित रहे, बन्दर की तरह इधर-उधर उछल कूद न मचाये। योगिराज अरविन्द ने इसी प्रकार का कुटी प्रवेश किया था। निजी साधना में तो और भी ऐसे कितने ही तपस्वी हैं जो जीवन की निर्धारित परिधि में ही केन्द्रीभूत रहते हैंं। न शरीर को इधर-उधर मचलने-भटकने देते हैंं और न मन को ही आवारागर्दी में भटकने की छूट देते हैं। उच्चस्तरीय साधनाओं में यही नीति अपनाई जानी चाहिए। कल्प साधकों की साधना अवधि एक महीने की हो या दस दिन की, उन्हें परिपूर्ण श्रद्धा के साथ उसी प्रयोजन में तन्मय होना चाहिए, शरीर एवं मन को जहाँ-तहाँ भटकने न देकर अन्तर्जगत में ही सीमाबद्ध रहने में निरत रखना चाहिए। गुफा प्रवेश की समाधि साधना जैसा स्तर बना कर ही इस अवधि को पूर्ण करना चाहिए। यदि अवधि बढ़ायी जा सके तो और भी अधिक लाभ मिलते हैंं।

आत्म साक्षात्कार, आत्म दर्शन, आत्म बोध आदि की अध्यात्म शास्त्रों में भाव भरी चर्चा है। भगवान बुद्ध को जिस बट वृक्ष के नीचे आत्म बोध हुआ था, उसे 'बोधिवृक्ष' नाम दिया गया, देवतुल्य पूजा गया एवं उसकी टहनियाँ काटकर संसार भर के बौद्ध धर्मानुयायी ले गये और अपने-अपने यहाँ उसकी स्थापना करके वैसे ही देवात्मा बोधिवृक्ष उगाये। यहाँ चर्चा वृक्ष विशेष की नहीं हो रही है वरन् यह कहा जा रहा है कि आत्मबोध, आत्मदर्शन ही उच्चस्तरीय देव वरदान है। जिसे उसकी उपलब्धि जिस अनुपात में हो गई समझना चाहिए कि वह उतना ही बड़ा श्रेयाधिकारी बन गया।

सभी देव मानवों की अन्तःस्थिति यही रही है। इनने अपने को जाना, समझा है और आत्म गौरव को प्रमुखता देकर तद्नुरूप जीवनचर्या का निर्धारण किया है। इतने भर से आगे की सारी बात बन जाती है। सही दिशा में प्रवाह चल पड़े तो अन्ततः उसकी समाप्ति समुद्र मिलन के रूप में ही होगी। जिन्हें भव बन्धनों का, समस्त संकटों का, हनन-पराभवों का आधारभूत कारण माना गया है वे और कुछ नहीं मात्र आत्म-विस्मृति के रूप में, निकृष्ट दृष्टिकोण के रूप में अन्तराल पर चढ़े कुसंस्कारी कषाय कल्मष भर है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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