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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
अपने आपको विस्मृत कर देने के उपरान्त फिर भटकाव ही भटकाव शेष रहता है। कस्तूरी मृग की निराशा और मृगतृष्णा की थकान की कथा प्रसंगों में बार-बार चर्चा होती रहती है। सियारों के झुण्ड में पले सिंह शावक का जल में परछाई देखकर आत्म-बोध होने पर पिछला स्वभाव तत्काल बदल देने वाला दृष्टान्त सभी ने सुना है। इस उद्धरण में उपनिषदकार का वही उद्बोधन झाँकता है जिसमें 'आत्मावतरे ज्ञातव्य.........' आदि की हुँकार है। गीताकार का मन्तव्य है 'उद्धरेत आत्मनात्मानं...........' यह आत्मदर्शन ही प्रकारान्तर से ईश्वर दर्शन है। इसी उपलब्धि को जीवन मुक्ति कहा गया है। जीवन लक्ष्य का चरम बिन्दु यहीं पहुँचने पर समाप्त होता है।
आत्म दर्शन शब्द रहस्यवादियों के जाल जंजाल में फँसकर कुछ ऐसा बन गया है मानो किसी जादुई दृश्य को देखने और आश्चर्यचकित रह जाने जैसे कौतुक भरी स्थिति-परिस्थिति की चर्चा की जा रही हो। अनुमान लगता है कि आत्मा कोई अद्भुत आकृति की अन्तरिक्ष वासिनी देवी होगी जो बिजली की तरह साधक को अपनी छबि दिखाने के साथ-साथ वरदानों का पिटारा साधक पर उड़ेल कर फिर आकाश में विलुप्त हो जाती होगी। इन बाल कल्पनाओं के लिए तो कोई क्या कहे? पर जिन्हें तत्वदर्शन समझने का, ब्रह्म विद्या के प्रतिपादनों में प्रवेश करने का अवसर मिला है, उन्हें इस तथ्य को समझने में कहीं कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि अदृश्य आत्मा का दृश्यमान स्वरूप जीवन ही है। उसी को आत्मसत्ता के रूप में, व्यकित्व की समग्रता के रूप में देखा-समझा जा सकता है। आत्म साधना का तात्पर्य है-जीवन साधना। निराकार आत्मा का यही साकार रूप है। आत्मदेव को सर्वोपरि देव कहा गया है। उसकी तुलना कल्पवृक्ष से की गई है और कहा गया है कि उसकी आराधना करने वाले की सभी मनोवाँछाएँ पूर्ण होकर रहती हैं।
वेदान्त दर्शन में आत्मा को ब्रह्म कहा गया है। 'अयमात्मा ब्रह्म-तत्वमसि प्रज्ञानं ब्रह्म-सच्चिदानन्दोऽहम्-शिवोऽहम्' आदि सूत्र संकेतों में इसी तथ्य का प्रतिपादन है कि अपना परिष्कृत आपा ही सुविकसित, सुसंस्कृत स्थिति में पहुँचने पर परब्रह्म की, परमात्मा की भूमिका निभाने लगता है। नर पिशाच, नर पशु, नर कीटक की स्थिति तभी तक रहती है जब तक साधक को अपने आपका बोध नहीं होता।
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