आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
जब 'स्व' शरीर तक सीमाबद्ध हो जाता है तब आकांक्षाएँ, विचारणाएँ, गतिविधियाँ भी काय कलेवर की शोभा सुविधा बढ़ाने में ही निरत रहने लगती है। विलास, वैभव ही इष्ट बन जाता है। वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए ही समूची प्रतिमा नियोजित रहती है। कई बार तो यह लिप्साएँ इतनी आकुल-व्याकुल हो उठती हैं कि नीति-मर्यादा के औचित्य अनुशासन का उल्लंघन करने में तनिक भी संकोच नहीं होता।
दुनियादारी पर छाई रहने वाली इस दुर्बुद्धिजन्य दुर्गति से उबरने में वेदान्त शिक्षा ही समर्थ नौका का काम देती है। उस तत्व दर्शन को अपनाने से आत्म-बोध उभरता है। अपनी स्थिति का सही ज्ञान होता है और लगता है कि अज्ञान आच्छादन से छुटकारा पाना ही परम पुरुषार्थ है। यही जीवन लक्ष्य भी है। मुक्ति के नाम से इसी स्थिति की सुखद सम्भावनाएँ शास्त्रकारों ने सुविस्तृत विवेचना एवं आकर्षक अलंकारिक भाव सवेदना के साथ प्रस्तुत की है।
आत्मबोध को आत्मदर्शन का पुरुषार्थ कहा गया है। यही चरम सौभाग्य भी है। इसी एक साधना के सघने से असंख्य विपत्तियों से छुटकारा मिलता है और समस्त सिद्धियों का द्वार खुलता है। ब्रह्म विद्या की उपनिषद चर्चा में अनेकानेक तों, तथ्यों, मार्गदर्शक प्रमाणों व उपचार को प्रस्तुत करते हुए श्रेयार्थी को एक ही शिक्षा, एक ही प्रेरणा की गयी है कि वह माया बन्धनों से मुक्त होने का प्रयत्न करे। माया अर्थात् अपने को शरीर मानने की, उसी की वासना तृष्णा में पिसने की लिप्सा शरीर सम्बन्धियों को भी इसी परिधि में गिनकर व्यक्ति गुलर के फलों की तरह इसी संकीर्णता की कीच में सड़ता-गलता रहता है। इसी नरक दल-दल से उबरने, उछलने की साहसिकता, दूरदर्शिता उभारने के लिए ही कई प्रकार के योगाभ्यास तप साधन किए जाते हैंं। स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन के चारों प्रयोग उपचार इसी एक आवश्यकता की पूर्ति में नियोजित किए जाते हैंं।
आध्यात्मिक कल्प के दिनों में साधक का समूचा चिंतन इस एक ही तथ्य के इर्द-गिर्द भ्रमण करना चाहिए कि वह शरीर नहीं आत्मा है। वह ब्रह्म लोक का निवासी है। वही उसका घर परिवार है। यहाँ तो मेले-ठेले का प्रबन्ध करने, अपव्यय को व्यवस्था में बदलने के विशेष उद्देश्य के लिए उसकी सुरक्षा रखना भर उसका कर्तव्य है। इन्द्रिय लिप्सा और मनोगत तृष्णा तो छलावा भर है। वास्तविक हित साधन तो आत्मा की आवश्यकता पूरी करने के लिए पुरुषार्थ करने में है। इस स्तर का चिंतन निरंतर जारी रखा जाय। शरीर से आत्मा की भिन्नता को पढ़ने, रटने से काम नहीं चलता। उसकी अनुभूति उभरनी चाहिए। इसके लिए एक ही स्तर की दृश्यावली कल्पना क्षेत्र पर छाई रहनी चाहिए-आत्मा और शरीर की भिन्नता तथा दोनों की अपने-अपने ढंग की आवश्यकता। दोनों के बीच दूरदर्शी ताल-मेल बिठाने वाली 'महाप्रज्ञा की भाव भूमि का, चान्द्रायण अवधि में इसी वेदान्त प्रतिपादित आत्मानुभूति का, अभ्यास करते रहना चाहिए। इसके लिए कोई नियत समय निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं है। काम करते, चलते-फिरते विभिन्न उदाहरणों को अपनाकर इस अनुभूति को उभारने, परिपक्व करने का प्रयत्न करना चाहिए।
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