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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


वाहन, सेवक, उपकरण, वस्त्र आदि की उपमा शरीर की और स्वामी, प्रयोक्ता की स्थिति आत्मा की समझी जाने लगे तो समझना चाहिए कि आत्मदर्शन का आलोक उभरा। इस अनुभूति के साथ ही वे तथ्य भी प्रकट होते हैंं जिनमें अपना स्थाई निवास ब्रह्मलोक में होने का प्रतिपादन है। उत्कृष्टता की भाव-भूमिका में होने की बात पर विश्वास जमता है, साथ ही इस निष्कर्ष पर पहुँचने में भी कठिनाई नहीं होती कि शरीर को उपयुक्त पोषण और आत्मा को उबारने का अवसर मिलना चाहिए। यह सब कैसे बन पड़े? इसका निर्धारण दुरदर्शी-विवेकशीलता, महाप्रज्ञा का अवलम्बन लेने से ही शक्य होता है।

बड़ी समस्यायें सामने आने पर उनका स्वरूप समझने, संभावनाओं का अनुमान लगाने, हल करने का उपाय खोजने, सहयोग और साधन जुटाने के सम्बन्ध में कई प्रकार से ताना-बाना बुनना पड़ता है। तब कुछ कामचलाऊ रास्ता निकलता है। चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार वोट पाने के लिए अनेक उपाय सोचते हैंं और अनेक उपाय अपनाते हैंं। जीवन की सबसे बड़ी बाजी जीतने का इन दिनों यही आधार समझा जाना चाहिए कि आत्मबोध की न केवल झाँकी, कल्पना उभरती रहे वरन् स्थिति उस स्तर तक पहुँचे कि मान्यता की परिपक्वता अर्थात अपने को आत्मा के रूप में शरीर से भिन्न देखने का अनुभव अभ्यास भी परिपक्व होने लगे।

आत्मोत्कर्ष की यह भाव संवेदना जिस अनुपात में उभरेगी, उतना ही यह विश्वास बढ़ेगा कि आत्मा और परमात्मा का संयुक्त समन्वय जीवन सम्पदा के रूप में प्रत्यक्ष है। उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की योजना बनाना और कार्यान्वित करना यही ही वेदान्त साधना है और यही है आत्मदेव की यथार्थवादी आराधना-अभ्यर्थना।

वेदान्त चिन्तन का समुद्र मंथन चलते रहने पर उससे जिस सर्वोपरि उपहार-अनुदान की उपलब्धि होती है उसे अमृत कहते हैंं। मंथन अर्थात् आत्मबोध अर्थात् जीवन सम्पदा की उच्चस्तरीय ईश्वरीय अनुदान के रूप में मान्यता। इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग कैसे दन पड़े इसी के चिन्तन, मन्थन और निर्धारण को ब्रह्म विद्या का सारतत्व समझा जाना चाहिए। कल्प की अवधि में चेतना को एक ही समस्या को समझाने में जुटाये रहना चाहिए कि आत्मा की, उसके दृश्यमान प्रतिनिधि जीवन की 'आत्मदेव' की अभ्यर्थना कैसे की जाय और उस कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर ऋद्धि-सिद्धियों का अनन्त वैभव वरदान किस प्रकार पाया जाए।

साधक महाप्रज्ञा गायत्री का अनुष्ठान सवालक्ष का इस अवधि में करते ही हैं। अनुष्ठान में जप के साथ चिन्तन, आत्मनिर्देशन, दिशाचयन, लक्ष्य प्राप्ति की तीव्र जिज्ञासा का भाव-भरा समावेश है। इससे कम में अनुष्ठान पूर्ण हुआ माना नहीं जाना चाहिए। मात्र मुँह से जप लेना, मनके घुमा लेना, किसी तरह ४-५ घण्टे की अवधि काट लेना तो एक प्रकार से सिर पर आई बला को टालना है। चिन्तन को सुनियोजित बनाकर लक्ष्य के साथ जब तादात्म्य हुआ जाता है तो स्वयं ही अपना व्यक्तित्व उस साँचे में ढलने लगता है जो कल्प साधना की अंतिम परिणति होना चाहिए। उपासना साकार हो या निराकार अनुष्ठान के साथ जुड़े चिन्तन पर उसकी सफलता निर्भर करती है। पूरे एक माह की अवधि में व्यक्ति अधिकाधिक अपने अन्तः को बदलने में समर्थ हो सके इसके लिए निरन्तर आत्मदर्शन एवं आत्ममुखी चिन्तन को प्रधानता देनी होगी। स्वाध्याय के साथ सोद्देश्य चिन्तन प्रधान अनुष्ठान साधना के प्रतिफल अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं, साधक कृतकृत्य होता है एवं अपनी जीवन धारा को नये ही पड़ाव पर पाता है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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