आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
जीवन-साधना में संयमशीलता का समावेश
"हर दिन नया जन्म और हर रात नया मरण-मानकर चलने से जीवन सम्पदा के सदुपयोग के लिए अन्तः प्रेरणा उभरती है। इसलिए हर साधक को विशेषतया कल्प प्रक्रिया में निरत श्रेयार्थियों को इस साधना को अनिवार्य रूप से अपनाना चाहिए। यह साधना वस्तुतः जीवन को एक नयी दिशा देने वाली साधना है। प्रातःकाल नींद खुलते ही नया जन्म होने की कल्पना जगाई जाय, भावना उभारी जाय। साथ ही यह भी सोचा जाय कि मात्र एक दिन के लिए मिले इस सुयोग-सौभाग्य का श्रेष्ठतम सदुपयोग किस प्रकार किया जाय। कुछ समय इसी सोच विचार में लगाने के उपरान्त बिस्तर छोड़कर उठना चाहिए और नित्य कर्म से निवृत्त होने के लिए जाना चाहिए।
ठीक इसी प्रकार रात्रि को सोते समय यह विचार करना चाहिए कि निद्रा एक प्रकार की मृत्यु है। अब मरण की गोद में जाया जा रहा है। मृत्यु के उपरान्त प्राणी ईश्वर के दरबार में पहुँचता है। पहुँचते ही तत्काल पूछताछ होती है। इस पूछताछ का एक ही विषय होता है-"सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन किस प्रयोजन के लिए दिया गया था? उसका उपयोग किस प्रकार किया गया? इसका विवरण दिया जाय।" इस विवरण को शानदार ढंग से शिर उठाकर दिया जा सके ताकि उससे परलोक का अधिष्ठाता संतोष व्यक्त कर सके, अगली बार कुछ बड़ा पद उत्तरदायित्व सौंपने का विचार कर सके। यही है वह भविष्य-चिन्तन जिसे रात्रि को सोते समय तब तक करते ही रहना चाहिए जब तक कि निद्रा स्वयं आकर अपने अंचल से ढक न ले।
उठते समय की उपरोक्त साधना को 'आत्मबोध' और सोते समय वाले चिन्तन को 'तत्वबोध' कहा गया है। यह दोनों देखने, कहने, सुनने एवं करने में अत्यन्त साधारण जैसी लगती है किन्तु यदि चिहन पूजा की तरह उसकी लकीर न पीटी जाय और गम्भीरतापूर्वक उन विचारणाओं की परिणति एवं फलश्रति पर विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि इस बीज का विकास-विस्तार विशालकाय वट वृक्ष के रूप में होता है। चिनगारी तनिक-सी होती है किन्तु उसे ईंधन की सुविधा मिल सके तो उसे प्रचण्ड दावानल बनते और योजनों लम्बा वन प्रदेश उदरस्थ करते देर नहीं लगती। आँख से न दीख पड़ने वाला, बाल की नोंक से भी कम विस्तार वाला शुक्राणु जब नौ महीने जितने स्वल्प काल में एक अच्छा खासा शिशु बनकर प्रकट होता है तो कोई कारण नहीं कि उपरोक्त विचार द्वय समुचित परिपोषण पाने पर जीवन को देवत्व से लपेट देने वाले वरदान सौभाग्य के रूप में प्रकट विकसित न हो सकें।
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