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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


जन्म के उपरान्त जीवन सम्पदा के उपयोग का अवसर मिलता है और मरण के उपरान्त ईश्वर की न्याय-दीर्घा में खड़े होकर कृत्यों का परिणाम भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है। इन दोनों का सामना न करना पड़े, ऐसा बचाव किसी भी मनुष्य शरीरधारी के लिए सम्भव नहीं। अस्तु, उनका सामना करने के लिए मनोभूमि बनाने एवं तैयारी करने में ही बुद्धिमत्ता है। चिन्तन-चेतना के इस संदर्भ में उपेक्षा नहीं बरतनी चाहिए वरन् जो अवश्यम्भावी है उसके लिए समय रहते जागरूकता बरतने एवं तत्परता अपनाने में ही दूरदर्शिता है।

इस तथ्य को जितनी गम्भीरतापूर्वक समझा जाय उतना ही अच्छा है कि उपलब्ध मनुष्य जीवन, ईश्वर का सर्वोपरि उपहार है। उसमें आत्मोत्कर्ष की समस्त सम्भावनायें भरी पड़ी है। साथ ही ईश्वर को प्रसन्न करने तथा उस अनुकम्पा के आधार पर कुछ पाने का यही ठीक अवसर है। इसे महत्वहीन न समझा जाय। उसे भार की तरह न ढोया जाय। इस अलभ्य सौभाग्य को अस्त-व्यस्त प्रयोजनों में न गँवाया जाय। बुद्धिमत्ता इसी में है कि संयोगवश आरम्भ में उगे कल्प-वृक्ष को ठीक तरह सींचा-पोसा जाय, प्रतिकूलताओं से बचाया जाय और उसे विकसित स्थिति तक पहुँचाया जाय जिससे उसकी सुखद छाया में बैठने और अभीष्ट वरदान पाने का सौभाग्य बरसने लगे। अज्ञानग्रस्त इस अलभ्य अवसर का न मूल्यांकन कर पाते हैं और न उसके सदुपयोग की कोई योजना-व्यवस्था बनाते हैं। फलतः अनाड़ी के हाथ पड़े हुए हीरक हार की तरह उसके साथ खिलवाड़ होती और धागे टूटने, मनके विखरने जैसी विडम्बना बनती रहती है। इससे बड़ी दुर्भाग्यभरी दुर्घटना और नहीं हो सकती कि जीवन का महत्व न समझा जा सके उसका मूल्यांकन न बन पड़े और किसी प्रकार मौत के दिन पूरे कर लेने के अतिरिक्त और कुछ पल्ले न पड़े। पेट-प्रजनन में व्यस्त रहना तो तुच्छ प्राणियों को क्रियाशील रखने वाला प्रकृति का हण्टर भर है। वह तो हर योनि में पड़ता ही रहा है, भविष्य में जन्म लेना पड़े तो उनमें भी यह सटापट बरसेगा ही। मानवी बुद्धिमत्ता की सार्थकता इसमें है कि वह इस अलभ्य अवसर का सौभाग्यमय सदुपयोग समझें। इस निष्कर्ष पर पहुँचाकर उस मार्ग पर चलायं जिसके आधार पर वर्तमान को समुन्नत और भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकना सम्भव हो सकता है। इसके लिए उपयुक्त दिशाधारा का सुनिश्चित निर्धारण बन पड़े तो ही प्रस्तुत सौभाग्य से लाभान्वित हो सकना सम्भव है। देखना यही है कि प्रस्तुत कल्प साधना को जीवन में एक महान मोड़ दे सकने वाली प्रखरता से सम्पन्न बनाया जा सका या नहीं।

साधकों को अनुभव करना चाहिए कि वे इस अवधि में माता के गर्भ में निवास कर रहे हैं और ऐसा आवश्यक पोषण प्राप्त कर रहे हैं जिसके सहारे जन्म लेने के उपरान्त समूचे जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने में समर्थ हो सकें। गुरु-गृह को भी माता के गर्भ के सदृश्य माना गया है। साधक की इन दिनों मान्यता ऐसी ही होनी चाहिए। ऊषाकाल, रात्रि की विदाई और दिनमान की अगवानी करता है। कल्प साधना की अवधि में ऐसी ही अनुभूति होनी चाहिए कि नर पशु का स्तर त्यागने और देव स्तर में प्रवेश करने का यही ऊषाकाल है। इन्हीं क्षणों में महान परिवर्तन की सम्भावना बन रही है। सघन संव्याप्त तमिस्रा का पलायन और समूचे आकाश में प्रभात का प्रकाश वितरण सचमुच ही आश्चर्य है। इतने थोड़े क्षणों में इतना महान परिवर्तन देखते हुए लगता है ऊषाकाल की प्रभात बेला कितनी अद्भुत, कितनी सशक्त एवं कितनी सौभाग्यशाली है, इसी प्रकार चान्द्रायण तपश्चर्या की भूमिका भी ऐसी ही होनी चाहिए जिसे कर्ता का अभिनव भाग्योदय कहकर शेष सारा जीवन सराहा और स्मरण रखा जा सके।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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