आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
पर यह सम्भव तभी है जब साधक इन दिनों अपनी भाव भूमिका को गतिशील रखे और पराक्रम की चरम सीमा तक पहुँचे। यों माता भी भ्रूण को बहुत कुछ देती है, पर उसे भ्रूण के निजी पुरुषार्थ की तुलना में नगण्य ही कहा जा सकता है। शरीर शास्त्री जानते हैं कि गर्भस्थ शिशु आत्मविकास के लिए जितना पराक्रम करता है उतना ही वह जन्म लेने के उपरान्त भी जारी रख सके तो उसे देव-मानवों जैसी महानता उपलब्ध हो सकती है। भ्रूण जब परिपक्व हो जाता है तो उदर दरी से बाहर निकलने में उसी को चक्रव्यूह बेधने जैसा पराक्रम करना पड़ता है। प्रसव पीड़ा उसी व्याकुल प्रयत्नशीलता की परिणति है। यदि भ्रूण दुर्बल है तो उसे पेट चीरकर निकालना पड़ेगा। स्वाभाविक प्रसव सम्भव न हो सकेगा। अण्डे को मुर्गी देती तो है, पर उसके भीतर भरे कलल में उसका जो निजी समुद्र मन्थन चलता है उसे देखकर चकित रह जाना पड़ता है। पका अण्डा जब फूटने को होता है तो उसकी सारी भूमिका भीतर वाले चूजे को ही निभानी पड़ती है। फूटने के समय अण्डा थरथराता है, उसमें पतली दरार पड़ती है, दरार तेजी से चौड़ी होती है और बच्चा उछलकर ऊपर आ जाता है। यह पुरुषार्थ न बन पड़े तो अण्डा सड़ेगा और उससे बच्चा निकलने की बात किसी भी प्रकार बनेगी नहीं। कल्प तपश्चर्या के साधकों को दैवी अनुग्रह की भी कमी नहीं रहने वाली। पर उड़ने भर से ही अभीष्ट प्रयोजन पूरा होने वाला नहीं है। भ्रूण एवं चूजे की तरह आवरण को तोड़कर बाहर निकलने के लिए पराक्रम तो उसका ही प्रमुख रहेगा। उस उक्ति में परिपूर्ण सचाई भरी हुई है जिसमें कहा गया है कि ईश्वर मात्र उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैंं।
जीवन अपने आप में पूर्ण है। वह पूर्ण से उत्पन्न हुआ है और पूर्णता से परिपूर्ण है अंगार और चिनगारी में आकार का भेद तो है पर गुण धर्म का नहीं। परमात्मा विभु है, आत्मा लघु। यह आकार भेद हुआ। तात्विक दृष्टि से दोनों में समानता है। इसलिए 'शिवोऽहम्'-'सच्चिदानन्दोऽहम्' के रूप में उस तात्विक एकता का उद्बोधन कराया जाता है। इस तथ्य के रहते मनुष्य की दुर्गति क्यों होती है? वह दीन दुर्बल क्यों रहता है? शोक सन्ताप क्यों सहता है? प्रगति प्रक्रिया से वंचित रहने का क्या कारण है? इस दुर्गुण के रहते तो कुबेर का खजाना खाली हो सकता है। रावण जैसा समर्थ भी सपरिवार घराशायी हो सकता है। भस्मासुर, वृत्रासुर, हिरण्याक्ष जैसे दुर्दान्त दैत्य बेमौत मारे गये। इस विनाशलीला में उनके अपने दोष-दुर्गणों की भूमिका ही प्रधान थीं।
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