आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु असंयम है। सामों का अपव्यय, दुरुपयोग ही असंयम है। शक्ति तथा सम्पन्नता का लाभ तभी मिलता है जब उसका सदुपयोग बन पड़े। दुरुपयोग होने पर तो अमृत भी विष बन जाता है। माचिस जैसी छोटी एवं उपयोगी वस्तु अपना तथा पड़ोसियों का घर-बार भस्म कर सकती है। ईश्वर प्रदत्त सामर्यों का सदुपयोग कर सकने की सूझ-बूझ एवं संकल्प शक्ति को ही मर्यादा पालन एवं संयमशीलता कहते हैंं। इसी का अभ्यास करने के लिए कई प्रकार की तप साधनायें करनी पड़ती हैं। कल्प से जुड़ी तप साधनाओं में भी उस प्रखरता को उभारना एक बड़ा उद्देश्य है जो मानवी शक्ति को अभ्यस्त अपव्यय से बलपूर्वक बचाती और दबाव देकर उसे सत्प्रयोजनों में निरत करती है।
संयम साधना के चार प्रमुख आधार है-
(१) इन्द्रिय संयम,
(२) अर्थ संयम,
(३) समय संयम,
(४) विचार संयम।
वस्तुतः यही करके कोई सच्चे अर्थों में सामर्थ्यवान बनता है। बाहरी शक्तियाँ तो अस्थिर भी हो सकती है और प्रयोक्ता की अदूरदर्शिता के कारण कई बार उसी के लिए घातक बनती है।
प्रगति के पथ पर अग्रसर होने वालों में से प्रत्येक को अपनी समर्थता को अपव्यय से बचाकर अभीष्ट उद्देश्यों की पूर्ति में लगाना पड़ता है। कल्प साधकों को भी साधना काल में तो उपरोक्त चारों प्रकार के संयम विवश होकर बरतने ही पड़ते हैंं। किन्तु इसी अवधि में यह निर्णय भी करना होता है कि साधना काल समाप्त होने के उपरान्त संयम साधना को जीवन चर्या का अविच्छिन्न अंग बनाकर रहेंगे। वस्तुतः भावी जीवन की तैयारी का निर्धारण ही इस कल्प साधना का सही एवं एकमात्र उद्देश्य है। थोड़े दिनों तो संयमी-तपस्वी बन कर रहा जाय और कल्प सूत्र समाप्त होते ही पुरानी बेतुकी आदतों में जुट पड़ा जाय तो स्नान करके फिर कीचड़ लपेट लेने जैसी एक बिडम्बना ही तो हुई।
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