आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
इन्द्रिय संयम में जिह्वा एवं जननेन्द्रिय पर छाये रहने वाले चटोरेपन का शमन करना पड़ता है। जीभ की चटोरी आदतों के कारण स्वाद के नाम पर अभक्ष्य खाने से अनावश्यक मात्रा में पेट पर बोझा लदता है। फलतः अत्याचार पीड़ित पेट में अपच रहने लगता है और चित्र-विचित्र नाम-रूपों वाली बीमारियों से शरीर संत्रस्त रहने लगता है। दुर्बलता और अकाल मृत्यु इसी असंयम की परिणति है। उत्तेजक, गरिष्ठ एवं भुने-तले पदार्थ न केवल दुष्पाच्य होते हैंं वरन् मन को चंचल, दुर्बल, दूषित एवं कुमार्गमागी भी बनाते हैं। मनोरोगग्रस्त व्यक्ति किस प्रकार संकट सहते और त्रास देते हैं यह सर्वविदित है। इन मनोरोगों का एक बहुत बड़ा कारण अभक्ष्य भी होता है। चटोरेपन से मुक्ति पाने के लिए समय-समय पर लम्बे अस्वाद व्रत करने होते हैं और सामान्य आहार क्रम में सात्विक पदार्थों को न्यूनतम मात्रा में ही अग्नि संस्कार कर उपयोग में लाते हैंं। इसी का एक स्वरूप, भले न्यूनतम ही सही, कल्प साधना में बनाया गया है।
जीभ का दूसरा संयम संयत वचन बोलना है। संक्षेप में सारगर्भित, सदाशयतापूर्ण, शालीनता समर्थक, नम्रता युक्त मधुर वाणी का अभ्यास तप कहलाता है। सत्य बोलने के अन्तर्गत बात को ज्यों का त्यों कह देना ही पर्याप्त नहीं, उसके साथ वे सारी विशेषतायें भी जुड़ी रहनी चाहिए जिन्हें अपनाने से वचन में शालीनता की झाँकी मिलती है। मौन इसी अभ्यास के लिए अपनाना पड़ता है। प्रायः यहाँ मौन रहने का विधान इस साधना में इसी कारण है।
इन्द्रियों में जिहवा और कामेन्द्रिय प्रधान है। उन्हें साध लेने से मन समेत अन्य इन्द्रियों सरलतापूर्वक सघ जाती हैं। ब्रह्मचर्य का माहात्म्य सर्वविदित है। ओजस को जितनी कम मात्रा में खर्च किया जाय, उतना ही नर और नारी दोनों का हित है। स्खलन से दाद खुजाने जैसी क्षणिक मुदगुदी भले ही मिलती हो, जीवनी शक्ति का भण्डार तो घटता ही है। यौनाचार की तरह ही कामुकता का वातावरण, चिन्तन, दृष्टिकोण भी उस अदृश्य शक्ति का विनाश करता है जिसे रचनात्मक प्रयोजनों में प्रयुक्त करके अनेकानेक उपयोगी सफलताएं उपलब्ध कर सकना सम्भव है। यों इन्द्रियों में आँख, कान, नाक आदि की भी गणना है, पर उनके असंयम उतने नहीं होते जितने चटोरेपन और कामुकता के। असंयम वार्तालाप प्रत्यक्षतः कितने दुष्परिणाम उत्पन्न करता है, यह सर्वविदित है। उस कारण ओजस शक्ति का क्षरण होने एवं प्रतिभा भण्डार में कमी पड़ने की हानि को भी जाना जा सकता है। वाणी का संयम ही है जिसके कारण ईश्वर प्रार्थना में बल आता है, मंत्राराधन सफल होता है और परामर्श प्रवचनों के प्रभावी होने से लेकर शाप वरदान देने की सामर्थ्य तक का उद्भव होता है।
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