आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
5 पाठकों को प्रिय 237 पाठक हैं |
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
मन को सात्विक बनाना आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। इसीलिए कहा गया है "जैसा खाये अन्न वैसा बने मन"। यहाँ अन्न से अर्थ है साधक का आहार। आहार शुद्धि साधना का प्रथम चरण है। तमोगुणी, उत्तेजक, अनीति उपार्जित, कुसंस्कारियों द्वारा पकाया-परोसा भोजन न केवल मनोविकार ही उत्पन्न करता है वरन् रक्त को अशुद्ध व पाचन को विकत करके स्वास्थ्य संकट भी उत्पन्न करता है। आत्मिक प्रगति में, साधना की सफलता में तो कुधान्य का, अभक्ष्य का प्रभाव विषवत पड़ता है। मन की चचलता इतनी अधिक हो जाती है कि सामान्य कार्यों में भी एकाग्र हो पाना सम्भव नहीं हो पाता। फिर साधना में अभीष्ट मनोयोग तो आहार शुद्धि बिना कैसे प्राप्त हो?
पिप्पलाद ऋषि पीपल वृक्ष के फल खाकर निर्वाह करते थे। कणाद ऋषि जंगली धान्य समेटकर उससे क्षुधा शांत करते थे। भीष्म पितामह शर शैया पर पड़े हुए धर्मोपदेश दे रहे थे, तब द्रोपदी ने पूछा-"देव, जब मुझे भरी सभा में नग्न किया जा रहा था तब आपने कौरवों को यह उपदेश क्यों नहीं दिये?" वे बोले-"उन दिनों मेरे शरीर में कुधान्य से उत्पन्न रक्त बह रहा था, अस्तु बुद्धि भी वैसी ही थी। अब घावों के रास्ते वह रक्त निकल गया और मेरी स्थिति सही सोचने एवं सही परामर्श देने जैसी बन गई है।" रुक्मिणी का जंगली बेर खाकर तथा पार्वती का सूखे पत्तों पर रहकर तप करना प्रसिद्ध है। उच्चस्तरीय साधनाओं में व्रत उपवास का अविच्छिन्न स्थान है। साधना में मन का सात्विक होना आवश्यक है। मन को शान्त, स्थिर एवं सात्विक बनाने के लिए उपवास पर, अन्न की सात्विकता पर ध्यान देना अति आवश्यक है।
कल्प साधना वस्तुतः उपवास प्रधान है। इसका एक स्वरूप चान्द्रायण साधना के रूप में देखने को मिलता है। चान्द्रायण का सर्वविदित नियम-अनुशासन पूर्णिमा से अमावस्या तक भोजन घटाने और तदुपरांत क्रमशः बढ़ाते हुए अगली पूर्णिमा को नियत मात्रा तक ले पहुँचना है। इसमें मन का कठोर संयम जिस प्रकार सम्भव हो पाता है, वह अन्य साधनाओं में नहीं है। यह क्रम पुरातन काल के साधकों के मनोबल और उनकी शरीरगत सामर्थ्य को देखकर ठीक भी था, पर अब बदली परिस्थितियों में जहाँ मनुष्य की जीवनी शक्ति उतनी नहीं रही, पर्यावरण के परिवर्तन उसे जल्दी-जल्दी प्रभावित भी करते हैंं, उतनी कठोर साधना सम्भव नहीं। फिर भी उपवास का महत्व जहाँ का तहाँ रहेगा। आरोग्य रक्षा की दृष्टि से भी अन्य श्रमिक-मजदूरों की तरह पेट को सप्ताह में एक बार छुट्टी मिलनी ही चाहिए। ऐसा न रहने पर उसकी कार्य क्षमता घटती है तथा शरीर में विजातीय द्रव्य एकत्र होते चले जाते हैंं। पूर्ण उपवास न बन पड़े तो कम से कम यह सम्भव है कि कल्प की अवधि में आधे या कम आहार पर निर्वाह कर लिया जाय। शाकाहार, फलाहार, अन्नाहार में से किसी एक का चयन कर उसे ही नियत मात्रा में नित्य लेते रहने का भी चन्द्रायण साधना में प्रावधान है। इसे एक प्रकार का मृदु चान्द्रायण कहा जा सकता है। भाँति-भाँति के सम्मिश्रणों से बचकर साधक यदि एक ही अन्न या शाक पर कल्प कर ले तो आहार शुद्धि, आन्तरिक कायाकल्प, आरोग्य प्राप्ति के सभी प्रयोजन परे होते हैंं।
|