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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


अब मनन का प्रश्न आता है। उपलब्ध साधनों को आत्म-कल्याण के लिए उसी प्रकार प्रयुक्त करने का निश्चय करना चाहिए जिस प्रकार कि शरीर निर्वाह एवं परिवार-पोषण के लिए किया जाता है। दोनों के बीच विभाजन रेखा बननी चाहिए। जीवन व्यवसाय में आत्मा और शरीर की साझेदारी न्यायपूर्वक चलनी चाहिए। दोनों के योगदान से ही यह व्यवसाय चलता है तो लाभांश भी दोनों में विभाजित-वितरित होना चाहिए।

मनुष्य के पास कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सम्पदायें है। श्रम, समय, चिन्तन एवं साधन के रूप में ये चारों हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान हैं। इन्हीं के बदले विभिन्न प्रकार की सम्पदायें विभतियाँ सफलतायें अर्जित की जाती है। विशेष चातुर्य कौशल न सही, इन चारों की सामान्य मात्रा हर किसी को उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि इनका विभाजन, उपयोग शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के लिए भी होने लगे। यह तभी सम्भव है जब उपरोक्त क्षमताएँ मात्र शरीरचर्या में ही नियोजित न रहें, इनका लाभ शरीर सम्बन्धी ही न उठाते रहें वरन् होना यह भी चाहिए कि आत्म-कल्याण के लिए भी इनका उपयोग होता रहे। मनन का उद्देश्य यही है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह यह फैसला करे कि जब जीवन-व्यवसाय में दोनों की पूँजी लगी हुई है-दोनों ही श्रम करते हैंं तो लाभ एक पक्ष ही क्यों उठाता रहे। दूसरे को उसका उचित भाग क्यों न मिलने लगे। जो बीत गया उसकी बात छोड़ी भी जा सकती है, पर भविष्य के लिए तो यह विभाजन रेखा बन ही जानी चाहिए कि किसे कितनी मात्रा में लाभांश उपलब्ध होता रहेगा।

पूजा-उपचार, आत्म-जागरण भर की आवश्यकता पूरी करते हैंं उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर को स्नान, दाँतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक है, उसी प्रकार मनःक्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोजन पूरा होता है। जीवन-लक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा की श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय होना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिए लोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य-जन्म की घरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाय। सृष्टा की विश्व-व्यवस्था में उत्कृष्टता बढ़ाने-बनाने में सहायक की तरह हाथ बँटाया जाय। लोक मानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उनमें साधनों का महत्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ-साथ आत्म-कल्याण का, आत्मोत्सर्ग का प्रयोजन भी पूरा होता है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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