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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


चिन्तन का विषय है-आत्मशोधन। मनन का उद्देश्य है-आत्म-परिष्कार। दोनों को एक दूसरे का पूरक कहना चाहिए। मल-त्याग के उपरान्त ही पेट खाली होता है तभी भूख लगती है और भोजन गले उतरता है। धुलाई के उपरान्त रंगाई होती है। नींव खोदने पर दीवार चुनी जाती है। साँस छोड़ने पर नई साँस मिलती है। प्रयाण से पिछला पैर उठता और अगला बढ़ता है। आत्म-परिष्कार प्रथम और आत्म-विकास द्वितीय है। जो लोग चित्त और चरित्र से निकृष्टता हटाने की उपेक्षा करके सीधे ईश्वर तक पहुँचने के लिए योग सिद्धियों की बात करते हैंं उन्हें हवा में तैरने वाले कल्पना लोक के पखेरू ही कहा जा सकता है। ऐसे शेखचिल्ली अध्यात्म क्षेत्र में भी कम नहीं है जो जिस-तिस क्रिया-प्रक्रिया को ही सब कुछ मानते हैंं और श्रम प्रयास के आधार पर ही साधना की सफलता का स्वप्न देखते हैंं।

शरीर कल्प में न केवल कुटी प्रवेश करने की, नियत आहार-विहार अपनाये रहने की आवश्यकता पड़ती है वरन् उन दिनों चिन्तन के लिए भी एक नियत क्षेत्र निर्धारित रहता है। उन दिनों उसी प्रकार सोचते रहना पड़ता है ताकि कायिक परिवर्तन में चिन्तन की भूमिका का भी समुचित योगदान रह सके। यदि वैसा न बन पड़े-कुटी प्रवेश की स्थिति में प्रयोग की असफलता, व्यर्थता का संदेह छाया रहे, जी घबराने लगे, उद्विग्नता छाई रहे तो समझना चाहिए कि कायाकल्प प्रयोग की सफलता संदिग्ध हो गई। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक कल्प-साधना के दिनों में मात्र भोजन में कटौती और जप पूरा करने की बेगार भुगती जाती रहे और आत्म-चिन्तन की उपेक्षा होती रहे तो समझना चाहिए कि शरीर-श्रम का जितना लाभ हो सकता है, उतना ही मिलेगा। मनोयोग के अभाव में उस उच्चस्तरीय प्रतिफल की आशा न की जा सकेगी, जो शास्त्रकारों, अनुभवी सिद्ध पुरुषों द्वारा बताई गई है।

समझा जाना चाहिए कि चिन्तन का विषय अनुशासन है-इसी को संयम कहा जाता है। इन्द्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम की चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। अपने वर्तमान स्वभाव-अभ्यास में इन प्रसंगों में कहाँ क्या त्रुटि रहती है इसका निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए। आत्म-पक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गण है। दूसरों के दोष ढूँढ़ना, अपने छिपाना आम लोगों की आदत होती है। कड़ाई से आत्म-समीक्षा कर सकने की क्षमता आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम चिहन है। पाप-कर्मों का प्रकटीकरण और प्रायश्चित का साहस इस बात का चिन्ह है कि इस क्षेत्र में प्रगति की आवश्यक शर्त को समझा और अपनाया जा रहा है। इसी श्रृंखला का अलग कदम स्वाध्याय सत्संग के द्वारा बाहरी प्रकाश-परामर्श प्राप्त करना है। उसी प्रक्रिया का सूक्ष्म रूप चिन्तन-मनन है। चिन्तन में गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीयताओं को बारीकी से ढूँढ़ निकालने का पर्यवक्षण करना होता है। साथ ही उन्हें किस प्रकार निरस्त किया जाय-यह न केवल सोचना होता वरन् उसके लिए दिनचर्या का ऐसा ढाँचा बनाना होता है जिसे अपनाकर उपरोक्त चारों संयमों का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। आदतों को बदलने के लिए उनकी प्रतिद्वन्द्वी आदतों को दैनिक व्यवहार में सम्मिलित करना होता है। असंयम की गुंजाइश जिन कारणों से, जिन कार्यक्रमों से बनती है, उनको भी बदलना होता है। व्यवहार बदलने पर ही आदतें बदलने की बात बनती है इसलिए होना यह चाहिए कि असंयमों का अभ्यास तोड़ने वाला चारों क्षेत्रों का एक निश्चित कार्यक्रम बनाया जाय और उसका परिपालन कठोरतापूर्वक आरम्भ कर दिया जाय। कल्प अवधि इन अभ्यासों के लिए प्रभात काल की तरह सौभाग्य बेला समझी जानी चाहिए। इन दिनों अन्तःप्रेरणा के आधार पर स्वेच्छा-निर्धारण से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाय। साथ ही यह भी निश्चित किया जाय कि इन निर्धारणों को घर लौटने पर भी भविष्य में नियमित रूप से जारी रखा जायगा। इस निश्चय पर उसी प्रकार आरूढ-व्रतशील रहना चाहिए जिस प्रकार विवाह होने पर पति-पत्नी एक दूसरे का आजीवन निर्वाह करते हैंं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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