आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कल्प साधकों को उपवास, जप, स्वाध्याय, सत्संग जैसे दैनिक कृत्यों की पूर्ति तो शास्त्र परम्परा के अनुसार करनी ही चाहिए, पर साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवधि तत्वतः अन्तर्जगत की गुत्थियों को सुलझाने के लिए किये जाने वाले मन्थन के लिए ही है। उसी को चिन्तन और मनन कहते हैंं। इस क्रिया रहित प्रक्रिया को चान्द्रायण कल्प का मेरुदण्ड आधार केन्द्र कहना चाहिए।
मन्थन में रई घुमाई जाती है। उसकी रस्सी एक बार आगे चलती है, दूसरी बार पीछे लौटती है। पीछे लौटना चिन्तन है और आगे बढ़ना मनन है। चिन्तन को आत्म-समीक्षा और आत्म-सुधार कह सकते हैंं। उसे तपश्चर्या की संयम अनुशासन अपनाने की पृष्ठभूमि कहना चाहिए।
मनन को आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास की पृष्ठभूमि कहना चाहिए। मुद्रता को महानता के साथ जोड़ देना ही योग है। इस उद्देश्य के लिए कामना को भावना में, तुच्छ को महान में, सीमित को असीम में परिवर्तित करना होता है। यही योग है। उसमें आस्थाएँ, आकांक्षाएँ एवं आदतें किस प्रकार उच्चस्तरीय बन सकें इसका निर्धारण एवं कार्यान्वयन करना होता है। प्रगतिक्रम को व्यवहार में उतारने की योजनाबद्ध साहसिकता की पृष्ठभूमि मनन के माध्यम से बनती है।
साधनाकाल में आस्था एवं विचारणा के क्षेत्र में नव-निर्माण का प्रयत्न पूरी तत्परता के साथ चलना चाहिए। शरीर तप अनुशासन में संलग्न रहे। समयचर्या उन्हीं अनुबन्धों के शिकंजे में कसी रहे। किन्तु विचार प्रवाह को भौतिक क्षेत्र से हटाकर अन्तर्मुखी रहने के लिए विवश करना चाहिए। इन दिनों भौतिक क्षेत्र की चिन्ता समस्याओं से उपराम ही लेना चाहिए। जो गम्भीरतापूर्वक कभी सोचा ही नहीं गया, उसे इन दिनों सोचना चाहिए। जिस क्षेत्र में कभी बुहारी तक नहीं लगी, कभी दृष्टि ही नहीं गई उसे इन दिनों साफ-सुथरा बनाने से लेकर सुन्दर सुसज्जित बनाने के लिए तत्परता एवं तन्मयता के साथ जुटे रहना चाहिए।
जप साधना के सीमित समय को छोड़कर प्रायः शेष सारा ही समय ऐसा है जिसमें विचार मंथन पर कोई रोकथाम नहीं है। शरीर कृत्यों के साथ-साथ चिन्तन प्रवाह अपने क्षेत्र में बहता रह सकता है। हल जोतते समय किसान घर-गृहस्थी की बात सोच सकता है, तो कोई कारण नहीं कि उपवास, श्रमदान आदि करते-करते जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं पर विचार करते रहने पर कोई रोकथाम रहे। यो चिन्तन-मनन के लिए कल्प में एक घण्टा नित्य एक निर्धारित प्रक्रिया के रूप में निश्चित है। उस समय तो विचार-मंथन उपरोक्त दो प्रयोजनों में निरत रहना ही चाहिए। इसके अतिरक्ति भी कभी भी खाली रहने या काम करते रहने की स्थिति में भी चिन्तन-मनन का उपक्रम जारी रखा जा सकता है।
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