आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आत्मा के नाम से पुकारी जाने वाली ब्रह्म ऊर्जा की छोटी चिनगारी का मौलिक स्वरूप भी प्रायः वैसा ही है। पतित, पराजित तो उसे कषाय कल्मषों का आवरण करता है। दर्पण के सामने जो भी वस्तु आती है उसी का प्रतिबिम्ब दीखने लगता है। मूढ़ता और दुष्टता सामने हो तो आत्मा का स्वरूप भी वैसा ही दीखने लगता है। यदि पर्दा हटा दिया जाय तो दृश्य बदलते देर न लगे। नर और नारायण की एकता के दृश्यमान होने में एक ही व्यवधान है-संचित कुसंस्कारिता। चिन्तन पर चढ़ी हुई और व्यवहार-अभ्यास में भरी हुई निकृष्टता को किसी प्रकार निरस्त किया जा सके तो आत्मा का मौलिक स्वरूप प्रकट होने में देर न लगे।
पुरुष-पुरुषोत्तम की, जीव-ब्रह्म की, नर-नारायण की एकता का प्रतिपादन काल्पनिक नहीं है। योगीजनों का प्रमाण-उदाहरण सामने है। उन्हें ईश्वर नहीं तो ईश्वरवत, ईश्वर का प्रतिनिधि तो माना ही जाता है। इस स्थिति को प्राप्त कर सकना किसी के लिए भी सम्भव है। मनुष्य शरीर में अनेक देवदूत समय-समय पर आये हैं और ऐसे काम कर गये हैं जिससे उन्हें अवतार की, भगवान की मान्यता मिली। इस स्थिति को उपलब्ध करने में किसी दैवी वरदान की आवश्यकता नहीं पड़ती। मनुष्य अपने ही पराक्रम-पुरुषार्थ से कषाय-कल्मषों के आच्छादन तोड़ता है और चक्रव्यूह बेधकर बाहर जा निकलता है। चक्र वेधन जैसी प्रक्रियायें भव बन्धनों की जकड़न तोड़ने और चक्रव्यूह से बाहर निकलने की भावनात्मक प्रक्रिया है। इसे पूरी करने वाले योगी उस जीवन-मुक्त स्थिति को प्राप्त करते हैं जिसका सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सायुज्य नाम से वर्णन-विवेचन किया जाता है।
योग किसी शारीरिक या पदार्थ परक हलचल का नाम नहीं है, जैसा कि आमतौर से आसन-प्राणायाम या नेति-धौति आदि को जाना बताया जाता है। ये शरीर और मन के व्यायाम भर है जो प्रकारान्तर से आत्म-परिष्कार में सहायक सिद्ध होते हैंं। तत्वतः योग अन्तराल पर चढ़े हुए अवांछनीय आच्छादनों को हटाने और उनके स्थान पर उच्चस्तरीय परिधान पहनाने की भावनात्मक प्रक्रिया है। उसमें अभ्यस्त आदतों के रूप में स्वभाव का अंग बनी हुई कुसंस्कारिता की जड़ें काटनी पड़ती है और उन झाड़-झैखाड़ों के स्थान पर उच्चस्तरीय आस्थाओं को अन्तराल में उगाना-परिपुष्ट करना होता है। अन्तस्क्षेत्र का यह समुद्र मन्थन ही योग है। खारे निषिद्ध जलाशय को मथकर किसी समय विष वारुणी को हटाया और अमृत जैसी अनेक विभूतियों को हस्तगत किया था। योग व्यक्तिगत समुद्र मंथन है जिसकी सारी प्रक्रिया अन्तःक्षेत्र में चलती है एवं उखाड़ने और जमाने का काया कल्प प्रस्तुत करता है। इसी को योग साधना कहते हैंं। संक्षेप में आन्तरिक परिष्कार का नाम योग और क्रिया-प्रक्रिया में संयम-अनुशासन का समावेश तप कहा जाता है। इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ प्रत्यक्ष प्रयोग उपचार भी चलाने पड़ते हैं। कल्प साधना की क्रिया-प्रक्रिया ऐसे ही निर्धारणों से भरी पड़ी है। इतने पर भी इस तथ्य को समझ ही लेना चाहिए कि उपचारों की आवश्यकता इसीलिए पड़ती है कि व्यक्तित्व के अदृश्य स्तर का, अन्तराल का कल्प परिवर्तन सम्भव हो सके। दृष्टिकोण और कर्म प्रवाह में निकृष्टता यथावत् बनी रहे और क्रिया-प्रक्रिया के रूप में चित्र-विचित्र उपचार चलता रहे, तो समझना चाहिए जड़ की उपेक्षा करके पत्ते धोने जैसी विडम्बना चल रही है।
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