आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्वदर्शन
आयुर्वेदीय शरीर कल्प की तरह आध्यात्मिक भाव-कल्प को समानान्तर समझा जाना चाहिए। एक में काया को दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि अनपेक्षित परिस्थितियों से मुक्त किया जाता है, दूसरे में आस्था, आकांक्षा एवं अभ्यास पर चढ़ी हुई कुसंस्कारिता से त्राण पाने का प्रयत्न किया जाता है।
शरीर की प्रकृति संरचना ऐसी अद्भुत है कि यदि उस पर असंयम जन्य अस्त-व्यस्तता न लादी जाय तो वह शतायु की न्यूनतम परिधि को पार करके सैकड़ों वर्षों जी सकता है। मरण तो प्रकृति धर्म है पर जीर्ण-शीर्ण होकर जीना-यह मनुष्य का अपना उपार्जन है। आरम्भ से ही सुपथ पर चला जाय, तब तो कहना ही क्या, अन्यथा मध्यकाल में रुख बदल दिया जाय तो भी ऐसा सुधार हो सकता है जिसे अद्भुत, अप्रत्याशित कहा जा सके।
चेतना तन्त्र की संरचना भी ऐसी ही है। ईश्वर का अंग होने के कारण उसमें सभी उच्चस्तरीय विभूतियाँ भरी पड़ी हैं। पिण्ड ब्रह्माण्ड का छोटा रूप है। परमात्मा की ही छोटी प्रतिकृति आत्मा है। शरीर में वे सभी तत्व विद्यमान है जो प्रकृति के अन्तराल में बड़े एवं व्यापक रूप में पाये जाते हैं।
काय साधना से न केवल आरोग्य लाभ मिलता है, वरन् तपश्चर्या की ऊर्जा से तपा, पकाकर ऐसा भी बहुत कुछ पाया जा सकता है जो प्रकृति की रहस्यमय परतों में खोजा-पाया जा सकता है। सिद्ध पुरुषों का प्रकृति पर आधिपत्य होता है। इसका आधारभूत कारण यह है कि काया में उन्हीं रहस्यों की बीज रूप में उपस्थिति को कृषि कार्य के साधनों से विकसित कर लिया जाता है। फलतः काया समूची माया का प्रतिनिधित्व करने लगती है। काया और प्रकृति के बीच आदान-प्रदान होने लगता है। जिस प्रकार पृथ्वी के ध्रुव केन्द्र व्यापक ब्रह्माण्ड से अपनी आवश्यक सामग्री खींचते, उपयोग करते रहते हैं, उसी प्रकार सिद्ध पुरुषों की काया न केवल ब्रह्माण्डव्यापी माया से, प्रकृति से आदान-प्रदान करती है, वरन् चेतनात्मक विशेषता के कारण कई बार उस पर आधिपत्य भी करने लगती है। तपस्वियों की आलौकिक चमत्कारी सिद्धियों का यही रहस्य है।
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