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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4197
आईएसबीएन :0000

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र


हिमालय का उत्तराखण्ड देवात्मा भाग वस्तुतः तपोवन है। उसमें तीर्थ स्तर की सुविधाएँ नहीं हैं। तीर्थों में आपतौर से गुरुकुल, आरण्यक और साधना आश्रम हुआ करते थे। उनमें सत्संग-स्वाध्याय की, निवास-विश्राम की व्यवस्था रहती थी। अभी भी ऐसे तीर्थों के कितने ही प्रतीक चिह्न जहाँ-तहाँ विद्यमान हैं; किन्तु हिमालय में समतल भूमि की व्यवस्था नगण्य होने के कारण वैसी बड़ी व्यवस्था का सुयोग नहीं बनता रहा है। छोटे-छोटे कुटीर और आश्रम भर सम्भव होते रहे हैं। उनमें व्यक्तिगत साधनाएँ इस दृष्टि से होती हैं कि अन्तराल में समाहित प्रसुप्त शक्तियों का जागरण सम्भव हो सके, दिव्य वातावरण मिलता रह सके और उस भूमि की उर्वरता में उनका व्यक्तित्व बीज रूप से समुन्नत होते-होते समर्थ-सम्पन्न हो सके, साधना बढ़ते-बढ़ते सिद्धि स्तर तक पहुँच सके।

इन दिनों देवालयों के संरक्षक, संचालक, पुजारियों का उस क्षेत्र में बाहुल्य है। साधना की दृष्टि से प्रायः गर्मी के दिनों में ऋतु अनुकूलता का लाभ उठाने के लिए कुछ लोग साधक के रूप में भी निवास करते हैं, पर जैसे ही ठण्ड बढ़ती है, नीचे गरम एवं सुविधाजनक क्षेत्रों में उतर आते हैं। हरिद्वार, ऋषिकेश तो इन लोगों से प्रायः हर ऋतु में भरा रहता है। सुविधाएँ उन्हें यहाँ ठहरने के लिए आकर्षित करती रहती हैं। घोर शीत के दिनों में हिमालय का देवात्मा क्षेत्र प्रायः खाली हो जाता है। जीवट वाले गृहस्थ और साधक ही उस क्षेत्र में रुक पाते हैं। दीवाली से होली तक के साढ़े चार महीने उस क्षेत्र में जाने पर सन्नाटा ही दृष्टिगोचर होता है।

तीर्थयात्रा के लिए अब यह क्षेत्र विस्तार प्राप्त करता जाता है। हर वर्ष पिछले वर्ष की तुलना में तीर्थयात्रियों की संख्या बढ़ जाती है। निवास, यातायात के विनिर्मित साधन अगले वर्ष फिर कम पड़ जाते हैं। यों देश भर में अन्यत्र भी अनेक तीर्थ हैं, पर उनमें से अधिकांश घनी आबादी के बीच बसे हैं। इसलिए पर्यटकों को जहाँ घिच-पिच का, स्थानाभाव का, मँहगाई का, वाहनों की कमी का सामना करना पड़ता है, वहाँ चोर-उचक्कों के छल-छद्म भी कम हैरान नहीं करते। इन सबसे उत्तराखंड के तीर्थों में अपेक्षाकृत कम परेशानी उठानी पड़ती है। वन, पर्वत, नदी, झरने, सुहावने लगते हैं, साथ ही भीड़ भी अपेक्षाकृत कम मिलती है। सुन्दर दृश्य और आकर्षक वातावरण सहज समझा देता है कि तीर्थयात्रा के उद्देश्य से इस क्षेत्र को प्रमुखता दी जाय। यही कारण है कि इस क्षेत्र में पर्यटक अधिक संख्या में आने लगने का क्रम चल पड़ा है। यात्रियों के कारण व्यापार भी चलता है और मजदूरी भी अच्छी मिलती है। इस दृष्टि से पहाड़ी क्षेत्रों की आबादी भी सुनसान क्षेत्र की तुलना में वहाँ ज्यादा बढ़ने लगी है। जहाँ सड़कें बन गयी हैं, कस्बे बस गये हैं, व्यापार होने लगा है। यह मार्ग और क्षेत्र इस दृष्टि से विकसित हुए हैं, कि यहाँ यात्रियों को, वहाँ के निवासियों का सहयोग मिले और निवासी यात्रियों के सहारे अपनी आजीविका का सहज उपार्जन कर सकें। संक्षेप में यही है वह प्रगति, जिसे पर्वतीय क्षेत्रों का, विशेषतया तीर्थ क्षेत्रों का विकास भी कह सकते हैं।

आर्थिक एवं सुविधा सम्वर्धन की दृष्टि से इस विकास को सराहा जा सकता है। घाट, पुल, सड़क, पगडंडी, व्यापार, उत्पादन, कृषि, उद्योग आदि का भी विस्तार होता जा रहा है। यद्यपि इस प्रगति के कारण वन भाग में कटौती होती चली जा रही है और बाढ़-भूस्खलन जैसी समस्याएँ क्रमशः बढ़ ही रही हैं।

इस प्रगति के साथ-साथ एक अवगति भी हुई है कि मनुष्य द्वारा अधिकृत क्षेत्र से दिव्य जड़ी-बूटियों का, वन्य जीवों का, महत्त्वपूर्ण वृक्षों का पलायन होता जा रहा है। धन की आवश्यकताओं के लिए, मकान बनाने के लिए पेड़ कटते जा रहे हैं। जहाँ कभी वनस्पतियाँ उगती थीं, वहाँ कृषि होने लगी है। वन्य पशु भीड़ से घबराकर एकान्त मिले, वैसा क्षेत्र खोजने के लिए पलायन कर चल पड़े हैं। वन क्षेत्र की यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ बढ़ते भौतिक विकास के साथ-साथ घटने भी लगी है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
  2. देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
  3. अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  4. अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
  5. पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
  6. तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
  7. सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
  8. सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
  9. हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ

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