आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालयश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र
यक्ष-गन्धर्व कभी-कभी दीख तो पड़ते हैं, पर वे मनुष्यों के प्रत्यक्ष जीवन में कोई विशेष सहयोग नहीं देते। प्रकट भी नहीं होते। विचार क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण उत्पादन खड़ा करते हैं। समूहों के लिए भी उनकी प्रेरणाएँ काम करती हैं। युग का प्रवाह बदलने में यक्ष-गन्धर्वो का प्रकटीकरण कदाचित् ही देखा जाता है। प्रेत-पितरों के क्रिया-कलाप जिस-तिस रूप में सामने आते रहते हैं, पर उनका उद्देश्य और क्षेत्र छोटा ही होता है।
सिद्ध पुरुषों को सूक्ष्म शरीरधारी ऋषि कहना चाहिए। यों भी तपस्वी जब तक स्थूल शरीर धारण किए रहते हैं, तब तक उन्हें ऋषि कहते हैं। जब वे स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म शरीर में अवतरित होते हैं, रहने लगते हैं, तब वे दिव्य पुरुष बन जाते हैं। इन्हीं को सिद्ध पुरुष भी कहते हैं। इन्हें देव और मनुष्य की मध्यवर्ती स्थिति में रहने वाले समझा जाता है। साधारणतया वे अदृश्य. ही रहते हैं; परन्तु आवश्यकता पड़ने पर स्थूलकाय कलेवर भी धारण कर लेते हैं। जिस शरीर से तप किया और सिद्धि पाई है, वह उन्हें प्रिय भी लगता है और उसे प्रकट करना भी सरल पड़ता है। इसलिए जब कभी किन्हीं को उनका दर्शन होता है, तो वही काया सामने आती है। उतनी ही वय दृष्टिगोचर होती है जितनी में उनने स्थूल शरीर का सूक्ष्मीकरण किया था। इस परिवर्तन के दोनों ही स्वरूप हो सकते हैं। एक यह कि अवधारित शरीर को उसी प्रकार अलग कर दिया जाय, जिस प्रकार सर्प केंचुली छोड़कर नई त्वचा वाली स्फूर्तिवान् काया का उपयोग करता है। छोड़ा हुआ शरीर नष्ट भी किया जा सकता है और ऐसा भी हो सकता है कि स्थूल का धीरे-धीरे परित्याग करते-करते स्थिति मात्र उतनी ही रहने दी जाय, जिससे कि सूक्ष्म ही शेष रहे। तत्त्वतः सिद्ध पुरुष सूक्ष्म शरीरधारी ही होते हैं। आवश्यकतानुसार कभी-कभी वे शरीर में भी प्रकट होते हैं। ऐसा विशेषतया तब होता है, जब उन्हें किसी या किन्हीं शरीरधारियों के साथ सम्पर्क बनाने, वार्तालाप करने की आवश्यकता होती है।
प्रकट होना या न होना यह पूर्णतया उनकी अपनी इच्छा पर निर्भर है। किसी के आग्रह अनुरोध का उन पर कोई दबाव नहीं पड़ता। कारण कि सिद्ध पुरुष मात्र उच्च उद्देश्य की पूर्ति को ही ध्यान में रखते हैं; जब कि सामान्यजन कौतुक-कौतूहल देखने, चमत्कारों का रस लेने, मनोकामना पूरी कराने के फेर में रहते हैं। इस स्तर की निकृष्ट मनोभूमि के दर्शन अभिलाषा में भी घोर स्वार्थ ही भरा होता है। उसे वे कुचक्र भर समझते हैं और अपने को उस जाल में फँसाने से स्पष्ट इन्कार कर देते हैं। उन्हें मात्र उन्हीं के सम्मुख प्रकट होने की उपयोगिता प्रतीत होती है, जिन्हें महत्त्वपूर्ण परामर्श देने पर उसकी पूर्ति हो सकने की पात्रता परिलक्षित होती है। कोई अपनी बेटी को कुपात्र वर के हाथों जानबूझकर नहीं सौंपता। फिर दिव्यदर्शी आत्मायें अपना अत्यन्त कष्टपूर्वक कमाया हुआ तप किसी के चाहने भर से प्रभावित होकर देने के लिए क्यों कर सहमत हो सकते हैं?
यों सिद्ध पुरुषों का शरीर सूक्ष्म होने के कारण उन्हें आकाश गमन की सिद्धि होती है। वे इच्छानुसार चाहे जिस क्षेत्र या स्थान में तत्काल जा पहुँचते हैं; फिर भी वे पतंग की तरह नहीं उड़ते फिरते। किसी या किन्हीं स्थानों को अपने लिए नियत करते हैं जहाँ वे शक्ति संचय के लिए तप करते रहते हैं, जो स्थूल शरीरधारियों के विधि-विधानों से सर्वथा भिन्न होता है। सूक्ष्म शरीर के साथ तन्मात्राएँ जुड़ी होती हैं। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श में सूक्ष्म शरीर की भी आसक्ति हो सकती है। यह कामनाएँ प्रकारान्तर से बन्धन में बाँधती हैं। विशालता को संकुचित करती हैं। इसलिए इन्हें भी उसी प्रकार काटना पड़ता है, जैसा कि स्थूल शरीर में जिस प्रकार वासना-तृष्णा के, लोभ-मोह के बन्धन बाँधते हैं। ये समुन्नत स्तर तक व्यक्तित्व को नहीं पहुँचने देते हैं। उसी प्रकार सूक्ष्म शरीरधारियों के लिए तन्मात्राओं के बन्धन जकड़ लेते हैं और अधिक ऊँची आत्मिक स्थिति पर अग्रगामी नहीं बनने देते। एकाग्रता को चंचलता में बदलते हैं। ऐसी स्थिति में वे देवात्मा बनने की स्थिति में नहीं पहुँच पाते। इसलिए तप का आश्रय उन्हें भी लेना पड़ता है- अपूर्णताओं को पूर्णता में विकसित करने के लिए। इसलिए उन्हें भी अपने लिए साधना हेतु उपयुक्त स्थान चुनना पड़ता है।
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- अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
- देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
- अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
- अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
- पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
- तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
- सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
- सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
- हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ