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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4197
आईएसबीएन :0000

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र


स्थान चयन में उन दो तथ्यों को ध्यान में रखना पड़ता है। एक यह कि वह कोलाहल रहित हो। प्रकृति की स्वाभाविक निस्तब्धता में किसी कारण विक्षेप न पड़ता हो। दूसरे यह कि जब भी सूक्ष्म शरीर को स्थूल आकार में बदलना पड़े, तब उसके लिए आवश्यक ताप और आहार उपलब्ध हो सके। इसके लिए गुफाएँ उपयोगी पड़ती हैं। वे पर्वतों के फैलने-सिकुड़ने से बन जाती हैं। उनमें से कितनी ही ऐसी भी होती हैं, जिनमें सूक्ष्म शरीरधारी ही नहीं स्थूल शरीर वाले प्राणी भी शीतकाल में तन्द्रित स्थिति में रहकर गुजार सकें। पत्थरों में भी कुछ ऐसे होते हैं, जिसमें चुम्बकीय गुण होते हैं। उन्हें परस्पर रगड़ने, टकराने से अग्नि प्रकट की जा सकती है। गुफाओं के भीतर शैवाल स्तर की काई और घास की मिली हुई वनस्पति प्रजाति पाई जाती है। उसका आहार की तरह उपयोग हो सकता है। गुफाओं में शीत अधिक न होने से उसमें बिना वस्त्र के भी रहा जा सकता है। अथवा वह कार्य भोजपत्र जैसी कोमल लम्बी छालों से लिया जा सकता है। इस प्रकार के आश्रय उन्हें इसलिए बनाने पड़ते हैं कि साथी सहयोगियों से जब भी आदान-प्रदान करना पड़े तो उसके लिए आवश्यक स्थूलता अपनाई जा सके। प्रत्यक्ष शरीर धारण किया जाय, तो उसके लिए निर्वाह की आवश्यक साधनसामग्री मिल सके। जब स्थूल स्थिति में जिस जगह निर्वाह हो सकता है, वहाँ सूक्ष्म स्थिति में बने रहना तो और भी अधिक सरल होना चाहिए।

कुछ समय पूर्व देवात्मा हिमालय के यातायात वाले स्थानों के समीप ही गुफाओं में ऐसी आत्माएँ रहा करती थीं। तब यात्रियों की धूमधाम नहीं थी। मार्ग कच्चे और अगम्य थे। इसलिए दुस्साहसी आत्मवान् ही उस क्षेत्र की यात्रा पर सिर से कफन बाँधकर चलने जैसी मनोभूमि बनाकर निकलते थे। पर अब वैसा बिलकुल भी नहीं है। बसावट बढ़ती जा रही है, मार्ग बनते जा रहे हैं। वाहन निकलते हैं। यात्रियों की संख्या हर वर्ष कई गुनी हो जाती है। इस सब के कारण वातावरण में कोलाहल तो बढ़ता ही है, साधारण स्तर के व्यक्तियों का चिन्तन, चरित्र भी उस क्षेत्र को प्रभावित करता है। साधनारत सिद्ध पुरुषों को उसमें घुटन अनुभव होती है। फलतः वे उन स्थानों को छोड़कर सघन वनों में ऊँचे पर्वतों में इसलिए चले जाते हैं, कि उन्हें मानव संकुल से उत्पन्न असुविधा का सामना न करना पड़े। अब यदि उनकी उपस्थिति का पता चल सके, तो खोजी को ऐसे क्षेत्रों में पहुँचना पड़ेगा, जो सर्वसुलभ नहीं हैं। इस कारण अब वह दूरी बहुत बढ़ गई है, जिसको सरलतापूर्वक पार किया जा सकता था और सिद्ध पुरुषों से संपर्क सध सकता था। खोजी वर्ग के लोग भी अपनी जीवट और तितिक्षा की दृष्टि से बहुत दुर्बल रहने लगे हैं। भौतिक लाभ के लिए सिद्ध पुरुषों का सम्पर्क कुछ विशेष लाभदायक नहीं होता। आत्मिक प्रगति की अभिलाषा अब किन्हीं विरलों में ही देखी जाती है। ऐसी दिशा में उन्हें आपस में मिलाने वाले आधार ही एक-दूसरे से प्रायः विपरीत हो जाने पर दोनों ओर से ऐसे प्रयत्न नहीं होते कि सामान्य साधकों और सिद्ध पुरुषों में पारस्परिक सम्बन्ध बने। दर्शन एवं परामर्श सम्भव हो। सिद्ध पुरुष परमार्थ प्रयोजनों के लिए उपयुक्त उच्चस्तरीय आत्माओं को तलाशते हैं। जबकि कौतुक-कौतूहल देखने की मनोभूमि वालों को मुफ्त के ऐसे वरदान–अनुदान चाहिए, जो उन्हें सम्पन्न, समृद्ध, युवक, यशस्वी, अधिकारी, विजयी जैसी लौकिक सफलताएँ मात्र दर्शन नमन के बदले दें या दिला सकें। अन्तर बहुत बड़ा हो गया है। यही कारण है कि पुरातन काल में साधकों और सिद्धों के जो संयोग बनते थे, वे अब असम्भव स्तर के बन गए हैं। आत्मश्लाघा से प्रेरित अपनी शेखी बघारकर दूसरों को चकित करने और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने वाले कुचक्री ही सिद्ध दर्शन और अनुग्रह पाने की किम्वदन्तियाँ गढ़ते और मन-मोदक झाड़कर जी बहलाते रहते हैं।



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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
  2. देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
  3. अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  4. अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
  5. पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
  6. तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
  7. सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
  8. सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
  9. हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ

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