आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालयश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र
यही सब बार-बार होता रहता है। अनैतिकता की अराजकता बार-बार उभरती रहती है। समुद्र में ज्वार और पवन में तूफान आने की तरह जब मानवी क्रिया-कलापों में अनैतिकता की अराजकता उभरती है, तो विश्व संतुलन बिगड़ने लगता है। यदि वह उसी रूप में चलता रहे तो महाविनाश जैसे विग्रह खड़े होते हैं। इनकी रोकथाम आवश्यक है। असंतुलन को संतुलन में बदलने से ही बात बनती है। उफानों को रोकने के लिए चूल्हे की जलती अग्नि बुझानी पड़ती है और उफनते झागों में पानी डालना पड़ता है। इसकी व्यवस्था भी नियंता ने बना रखी है। संतुलन की जिम्मेदारी देवात्माओं सिद्ध-पुरुषों को सौंपी है। उनकी विशिष्टता का उपयोग इसी में है कि सृष्टि के बिगड़ने वाले संतुलन को समय-समय पर नियन्त्रित करते रहें। प्रगति के मार्ग में अड़े हुए अवरोधों को हटाते रहें। यह एक प्रकार से स्रष्टा का हाथ बटाना है। विश्व उद्यान के मालियों को यही करना पड़ता है। वे उसे समुन्नत बनाने के लिए खाद पानी की व्यवस्था करते, खरपतवारों को उखाड़ते और उजाड़ने वाले तत्त्वों से निपटते हैं। देवात्माओं की शक्ति-सामर्थ्य इसी प्रयोजन में निरत रहती है। वे अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन वाली ईश्वरीय इच्छा को पूर्ण करने में अपनी सत्ता और क्षमता को होमते रहते हैं। गिरों को उठाते, उठने वालों को बढ़ाते, भटकों को राह दिखाते और पीड़ितों की सहायता करते हैं। आत्मा की गरिमा इसी में है कि वह अपना दुलार बिखेरे और वैभव बाँटे । अनीति से निपटे नीति को बढ़ाए और बिगड़े हुए संतुलन को बनाए। देवात्माएँ यही करती रहती हैं। अपनी अपूर्णता दूर करने के लिए योग तप का आश्रय लिया जाता है। साथ ही जो कुछ उच्चस्तरीय वैभव प्राप्त होता है, उसे सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाया जाता है। सिद्ध पुरुषों का यही एक मात्र क्रिया-कलाप रहता है। वे बादलों की तरह सुसम्पन्न बनते हैं और अपनी विभूतियों को आवश्यक प्रयोजनों के लिए भूखण्डों पर बरसा देते हैं।
सिद्ध पुरुष इसी के लिए अवसर की तलाश में रहते हैं। जहाँ अपने सहयोग की आवश्यकता समझते हैं, वहाँ उसे बिना माँगे अहैतुकी कृपा के रूप में मुक्तहस्त से बिखेर देते हैं। साथ ही ऐसे सुसंस्कारी व्यक्तियों को भी ढूँढ़ते रहते हैं, जिन्हें सामान्य से असामान्य बनाकर अपने ऊपर
लदे हुए दायित्व में भागीदार बनाने के लिए सहयोगी स्तर तक विकसित किया जा सके। साधक ऐसे ही व्यक्तित्वों को कहते हैं। पुण्य परमार्थ की उमंगों को उभारना ही साधना है। साधकों को सिद्धों की और सिद्धों को साधकों की आवश्यकता पड़ती है। दोनों एक दूसरे को खोजते हैं। संयोग मिल जाने पर अन्धे-पंगे का संयोग बनाकर अपूर्णता को पूर्णता में बदलते हैं।
सिद्ध पुरुष सूक्ष्मशक्ति प्रधान होते हैं। उनका सूक्ष्म शरीर होता है। साधक की स्थिति स्थूल शरीर में समाहित होती है। स्थूल की वरिष्ठता सूक्ष्म के संयोग से प्राप्त होती है। काया की वरिष्ठता प्राण बाहुल्य में है। साधक को काया और सिद्ध को प्राण कहा जा सकता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एकाकी सिद्ध मात्र सूक्ष्म होने से प्रत्यक्ष हलचलों के संयोजन में असमर्थ रहता है। इसी प्रकार एकाकी साधक प्राणशक्ति की न्यूनता के कारण वैसा कुछ कर नहीं पाता; जिसे अलौकिक या चमत्कार कहा जा सके, ऐसा बन पड़ना दोनों के संयोग से ही संभव होता है। इसलिए सिद्ध, साधकों को और साधक, सिद्धों को तलाशते देखे गये हैं। जब संयोग मिल जाता है, तो दोनों पक्ष कृतकृत्य हो जाते हैं। दो पहियों की गाड़ी सरपट दौड़ने लगती है।
सिद्ध पुरुषों का प्रधान कार्य सृष्टि का संतुलन बनाये रहना है। इसके लिए उन्हीं साथी सहयोगियों की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए उत्सुकता पूर्वक सत्पात्र साधकों को तलाशते रहते हैं। साधकों के लिए अपने बलबूते अधिक कुछ कर सकना संभव नहीं होता। बालक को अभिभावक का, अध्यापक का सहयोग चाहिए। इसके बिना एकाकी निर्वाह या विकास बन नहीं पड़ता। साधक भी उच्चस्तरीय उत्कर्ष के लिए समर्थ सहयोगी की आवश्यकता अनुभव करता और उसे खोजता है।
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- देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
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