आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालयश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र
रेडियो, टेलीविजन के प्रसारण के लिए ऊँचे-खम्भे खड़े किए जाते हैं। यह कार्य धरातल पर कारखाना बनाकर पूरा नहीं किया जा सकता। कारण कि धरातल पर से जो तरंगें निःसृत होती हैं, वे प्रायः समानान्तर ऊँचाई पर ही चलती हैं, उन्हें ऊँचा फेंकना हो तो विशेष शक्ति का नियोजन करना पड़ता है। किन्तु ऊँचे खम्भे के सिरे पर जो तरंगें फेंकी जाती हैं, वे निर्वाध रूप से लम्बी दूरी पार करती हुई विस्तृत क्षेत्र में बिखर जाती हैं। हिमालय की ऐसी सन्तुलित ऊँचाई देवात्मा क्षेत्र में ही पड़ती है, जहाँ से विश्व को, क्षेत्र विशेष को प्रभावित किया जा सके। वहाँ तक विशेष संदेश पहुँचाए जा सकें। सिद्ध पुरुष मात्र अपनी ही निजी साधनाओं तक सीमित नहीं रहते, उन्हें धरातल के विभिन्न क्षेत्रों को-वहाँ से विशेष व्यक्तियों को सन्देश पहुँचाने पड़ते हैं। इसके लिए उनका आसन ऐसे स्थान पर होना चाहिए, जो इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए सही और सन्तुलित हो। समुद्रों में खड़े किए गए प्रकाश स्तम्भ भी ऐसी ही ऊँचाई तक उठाए जाते हैं, जहाँ से उनमें जलने वाला प्रकाश जलयानों तक पहुँचने में भली प्रकार समर्थ हो। यदि यह स्तम्भ अनुपात में नीचे या ऊँचे हो, तो निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति न हो सकेगी। सिद्ध पुरुषों को प्रसारण भी करना पड़ता है और प्रकाश स्तम्भों की भूमिका भी निभानी पड़ती है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए उनने देवात्मा क्षेत्र को अपने लिए चुना है। यों सुविस्तृत हिमालय क्षेत्र में अनेक स्थान उससे ऊँचे भी हैं और नीचे भी। सुविधा-साधनों की दृष्टि से हिमालय के कई क्षेत्र अधिक पसंद किए जाने योग्य हैं, पर उनकी उपयोगिता इसलिए नहीं समझी गयी कि वहाँ से प्रसारण और संग्रहण का तारतम्य सही रूप से नहीं बनता है।
प्रसारण का तात्पर्य है-फेंकना। सिद्ध पुरुष अपनी आत्म-शक्ति का एक महत्त्वपूर्ण अंश समय-समय पर आवश्यकतानुसार फेंकते तो रहते ही हैं, साथ ही उन्हें यह भी करना पड़ता है कि अन्तरिक्षीय दिव्य प्रभावों को आकर्षित करके अपने में उनका अवतरण-अवधारण कर सकें। दिव्य शक्ति प्राप्त करने के लिए शरीरगत एवं मनोगत साधना ही पर्याप्त नहीं होती। अपने प्रसुप्त केन्द्रों का जागरण भी साधना का एक महत्त्वपूर्ण भाग है; पर उतने भर से ही वह महत्त्वपूर्ण प्रयोजन पूरा नहीं हो जाता। अन्तरिक्ष से भी बहुत कुछ प्राप्त करना पड़ता है। धरातल पर जलाशय क्षेत्र में अनेक उपयोगी पदार्थ और तत्त्व पाये जाते हैं, पर इससे कहीं अधिक मात्रा उसकी है, जो वायुभूत होकर अन्तरिक्ष में परिभ्रमण करता रहता हैं, यह पदार्थ रूप में भी है और चेतना रूप में भी। उसे जल-थल पर पाये जाने वाले पदार्थों की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण एवं मूल्यवान् समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए पवन, ताप, ध्वनि, प्रकाश, लेसर-रेडियो तरंगें, ऋतु प्रभाव, वातावरण आदि अनेकों बहुमूल्य तत्त्व आकाश में ही भरे पड़े हैं। यदि इन्हें आकर्षित एवं संचित किया जा सके, तो धरती पर पाई जाने वाली सम्पदा की तुलना में उसे असंख्य गुना अधिक मूल्यवान् पाया जा सकता हैं; फिर मात्र पदार्थ ही नहीं, अन्तरिक्ष में चेतना प्रवाह भी असीम मात्रा में भरा पड़ा है। इसे सचेतन में-अदृश्य लोक में विद्यमान रहने और मनुष्य परिकर के इर्द-गिर्द भ्रमण करते पाया जाता है। इसमें प्रेत-पितरों से लेकर देव-दानव स्तर की अनेकानेक सत्ताएँ परिभ्रमण करती रहती हैं। यों वे अपने रास्ते आती और चली जाती हैं; किन्तु प्रयत्नपूर्वक उन्हें पकड़ा और उपयोग में लाया जा सकता है। लोग प्रयत्न करने पर जलचरों और नभचरों को भी जाल बिछाकर पकड़ लेते हैं। यही प्रयोग अन्तरिक्ष की सचेतन सत्ताओं के संबंध में भी हो सकता है। देखना यह होता है कि अन्तरिक्ष के सघन क्षेत्र के साथ अधिक सरलतापूर्वक सम्पर्क कहाँ रहते हुए बन सकता है ? तत्त्वदर्शियों ने पाया है कि हिमालय का देवात्मा भाग इसके लिए अधिक उपयुक्त और सुविधाजनक है। अनेक क्षेत्रों की परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करते हुए तत्त्वदर्शियों ने देवात्मा भाग को ही अधिक उपयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण पाया है और उसी को अपने समुदाय के लिए सुनिश्चित स्थान नियत किया है।
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- अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
- देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
- अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
- अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
- पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
- तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
- सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
- सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
- हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ