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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4197
आईएसबीएन :0000

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र


जौनसार बावर इलाके में अभी भी बहुपति प्रथा चालू है। बहु पत्नी प्रथा का रिवाज तो पुराने जमाने की तरह अभी भी जहाँ-तहाँ दीख पड़ता है; किन्तु बहुपति प्रथा का खुला प्रचलन कहीं नहीं हैं। वेश्यावृत्ति अवश्य होती है, पर वह तो देह व्यापार भर है। गृहस्थ बसाकर बहुपतियों में समान रूप से सहयोग पूर्वक रहना इसलिए सम्भव नहीं होता कि पुरुषों में स्त्रियों से भी अधिक इस सम्बन्ध में ईर्ष्या पायी जाती है। वे अपनी पत्नी का अन्य पुरुषों से सम्बन्ध सहन नहीं कर पाते और पता चलते ही भयंकर विग्रह पर उतर आते हैं। किन्तु पृथ्वी पर जौनसार बावर ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ बड़े भाई का विवाह होता है और शेष सभी भाई अपनी बड़ी भावज के साथ पत्नीवत सम्बन्ध बनाये रहते हैं। यह गुपचुप नहीं होता। सबकी जानकारी में होता है। सन्तानें भी बड़े पिताजी, मँझले पिताजी, छोटे पिताजी आदि सम्बोधन करती हैं। ईर्ष्या और कलह जैसा रंचमात्र भी नहीं दीख पड़ता है। इतिहास-पुराणों में एक द्रौपदी की ही ऐसी कथा है। पर वह ईर्ष्या, द्वेष से ऊँचे उठकर दाम्पत्य जीवन में भी सहयोग-सहकार मात्र जौनसार बावर क्षेत्र में ही दीख पड़ता है। यह मानवी ईर्ष्या पर सद्भाव-सहकार की विजय है। यह क्षेत्र भी देवात्मा हिमालय क्षेत्र से लगा हुआ है।

हिमालय की ऊँचाई पर स्त्रियों का सौन्दर्य बढ़ता जाता है, पर वहाँ व्यभिचार जैसी घटनाएँ कभी नहीं सुनने में आती हैं। तलाक और पुनर्विवाह तो होते हैं, पर वह सारी व्यवस्था पंचों की आज्ञा-अनुमति से सभी की जानकारी में होती है। दरवाजों में कुण्डी चढ़ाकर या रस्सी बाँध कर घर वाले काम पर चले जाते हैं। रोकथाम मात्र जानवरों की होती है। कोई किसी की चोरी नहीं करता। पहाड़ी कुलियों की ईमानदारी प्रसिद्ध है। वे बोझा लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान को चलते हैं, उसमें बहुमूल्य वस्तुएँ और नकदी भी होती हैं। कुली आगे पीछे निकल जाते हैं, पर कभी ऐसा नहीं सुना गया कि कोई कुली सामान लेकर गायब हुआ हो या उसमें से अवसर पाकर कुछ चुराया हो। यह सहज सज्जनता हिमालय के इस हृदय निवासियों में पाई जाती है, फिर जो विचारशील हैं उनकी भलमनसाहत का तो कहना ही क्या ?

प्रकृति का चेतना से सम्बन्ध है और चेतना का प्रकृति से। दोनों की उत्कृष्टता-निकृष्टता का परस्पर सम्बन्ध बनता है। वसन्त जब महकता है तो उसका प्रभाव कोकिल, भ्रमर आदि से लेकर अन्यान्य जीवधारियों में मस्ती बनकर झूमता है। मादाएँ प्रायः उन्हीं दिनों गर्भधारण करती हैं। वसन्त समूची धरती पर एक ही समय नहीं आता, विभिन्न भू-खण्डों पर उसके ऋतुमास अलग-अलग होते हैं। जिस क्षेत्र में वसन्त उमड़ता है उसी में उसका मादक प्रभाव भी परिलक्षित होता है। देवात्मा हिमालय में वृक्षों का वसन्त ग्रीष्म में और वनस्पतियों का श्रावण, भाद्रपद में आता है; पर आध्यात्मिक उमंग उस क्षेत्र में सदा सर्वदा छाई रहती है। इसमें वनस्पति, हिम, सरिताएँ, निर्झर आदि सभी की पुलकन सम्मिलित है। यह प्रकृति के दबाव से होता है या चेतना के उल्लास से, इसका रहस्य गहराई में उतर कर देखा जाए तो प्रतीत होता है कि देवात्मा क्षेत्र में संव्याप्त चेतना तरंगें ही वातावरण को प्रभावित करती हैं। जो भी उधर जाता है, रहता है, स्थिर है, वह सात्विकता से ओत-प्रोत होता देखा जाता है। उसमें सामान्य की तुलना में अनेकों प्रकार की विशेषताएँ पाई जाती हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
  2. देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
  3. अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  4. अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
  5. पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
  6. तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
  7. सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
  8. सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
  9. हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ

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